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श्रद्धा
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श्रद्धा
श्रद्धा कहो, भक्ति कहो, एक ही बात है। साधक की साधना का मूल - प्राण श्रद्धा है। यदि श्रद्धा नहीं, तो साधना एक निर्जीव शव-स्वरूप हो जाती है।
शिव और शव में क्या अन्तर है ? 'अ' और 'इ' का ही तो अन्तर है । जहाँ श्रद्धा है, भक्ति है, वहाँ शिव है, परमात्मा है ।
और जहाँ वह नहीं है, वहाँ आत्मा एकमात्र शव है, मुरदे की लाश है !
पहले विश्वासी बनो
तुम चेतन आत्मा हो । जड़, ईंट-पत्थर नहीं। बताओ, तुम क्या बनना चाहते हो ? जो बनना चाहते हो, वही बन जाओगे। परन्तु, उसके लिए पहले विश्वासी बनो, योग्य बनो। फूल ज्यों ही महकने की भूमिका में आता है, त्यों ही खिल उठता है और भौरों की सैकड़ों टोलियाँ बिना बुलाए आ - आ कर उसका गुण - गान करने लगती हैं।
अमर - वाणी
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