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का निराश ! मुनिश्री उसे सम्बोधित करके आत्म-देवता की पूजा का संदेश दे रहे हैं । सन्देश कितना मार्मिक है, इसे जरा 'अमरवाणी' में पढ़कर देखिए।
भक्ति का रहस्य दासता या गुलामी नहीं है। सच्ची भक्ति वह है, जहाँ भक्त भगवान् के साथ एकता स्थापित कर लेता है। अपना अस्तित्व भूल कर उसी के अस्तित्व में मिल जाता है।"
स्वाध्याय का अर्थ पुस्तकों का अध्ययन नहीं है। उसका सच्चा अर्थ है, अपने आपको पढ़ना । पुस्तकें छोड़कर मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं को समझने का प्रयत्न करे । वर्तमान विज्ञानवादियों के लिए वे कहते हैं- "सच्चा ज्ञान प्रकृति के रहस्यों को खोलने में नहीं है, अपितु अपने रहस्यों के विश्लेषण में, उनकी जाँच करने में है।
श्रमण संस्कृति-सभी देश, धर्म और समाज अपनी-अपनी संस्कृति के गीत गाने में लगे हैं। किन्तु ढोल बजाकर अपनी आस्तिकता का गीत गाने वाले सभ्य कहे जाएँ या असभ्य, उन्हें संस्कृत कहना चाहिए या असंस्कृत, यह विचारणीय है। संस्कृति का मूल आधार 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' है। अधिक से अधिक लोगों के सुख एवं हित का साधन ही संस्कृति है । यदि यह भावना नहीं है, तो ढोल बजाने का कोई अर्थ नहीं । संस्कृति का अमर आदर्श है-लेने की अपेक्षा देने में अधिक आनन्द का अनुभव करना।
श्रमण संस्कृति किसी का विनाश नहीं चाहती। वह तो दानव को मानव और मानव को देव बनाना चाहती है । इसी को जैनसाधना में बहिरात्मा और परमात्मा कहा गया है।
जैन परम्परा एवं धर्म का रहस्य मुनिश्री ने 'जैनत्व' और 'श्रमण संस्कृति' में समझाया है। जैन - धर्म जातिवाद को नहीं मानता । यहाँ विकास का द्वार प्रत्येक मनुष्य के लिए खुला है। इतना ही नहीं, पशु के लिए भी खुला है। इसने सम्प्रदायवाद को कभी
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