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महत्त्व नहीं दिया । वासना, कषाय, राग, द्वेष आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाला प्रत्येक व्यक्ति जैन है । वह किसी वेष में हो, किसी भी नाम से पुकारा जाता हो, कोई क्रिया काण्ड करता हो, किसी को भी हाथ जोड़ता हो ।
जैन - धर्म की मुख्य प्रेरणा है 'आत्म-देव' होने में । अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त बल से सम्पन्न है । वही परमात्मा है । प्रत्येक व्यक्ति को उसी आत्म - देवता की पूजा करनी चाहिए। उसे पहिचान लिया, उसके ऊपर जमे हुए मैल को हटाकर असली स्वरूप प्रकट कर लिया, तो सब कुछ मिल गया । फिर कहीं भटकने की आवश्कता नहीं है ।
कर्मवाद का अटल नियम बताते हुए आप कहते हैं- “आग लगाने वालों के भाग्य में आग है और तलवार चलाने वालों के भाग्य में तलवार है । जो दूसरों की राह में काँटे बिछाते हैं, उन्हें फूलों की सेज कैसे मिलेगी ?" क्या अणुबम और उद्जनबम तैयार करने वाला राजनीतिक इस नीति को सीख सकेगा ?
प्राणिमात्र का कल्याण करने के लिए पृथ्वी पर धर्म - संस्था का जन्म हुआ । किन्तु, उसी का नाम लेकर मनुष्य ने पशुओं का रक्त बहाया और मनुष्यों का भी रक्त बहाया। इतना ही नहीं, जघन्यतम नर-संहार को धर्म-युद्ध कह कर खून की नदियाँ बहाईं । धर्म-संस्था के आदर्श उदात्त भावनाओं से भरे हैं, किन्तु इतिहास रक्तरंजित है और उस इतिहास के नये पृष्ठ अब भी लिखे जा रहे हैं । मुनिश्री कह रहे हैं - "अखिल विश्व के प्राणियों में आत्मानुभूति करना ही सबसे बड़ा धर्म है ।" क्या विश्व के सभी धर्माचार्य इस परिभाषा को मानने के लिए तैयार होंगे ? केवल आदर्श और उपदेशों द्वारा नहीं, किन्तु व्यवहार द्वारा ?
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