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________________ धर्म - साधना क्या है ? मनुष्य के मन में रही हुई प्रेम की बूंद को सागर का रूप देने की साधना । वे स्पष्ट स्वर में कहते हैं - "तलवार से फैलने वाला धर्म, धर्म नहीं हो सकता। वह धर्म भी धर्म नहीं हो सकता, जो सोना-चांदी के चमकते प्रलोभनों को चकाचौंध में पनपता हो। सच्चा धर्म वह है, जो भय और प्रलोभनों के सहारे से ऊपर उठकर तपस्या और त्याग के, मैत्री और करुणा के सुनिर्मल भावना शिखरों का सर्वांगीण स्पर्श कर सके।" महावीर के अनुयायी जैन भी धर्म को सोने - चाँदी की चकाचौंध में पनपाने का प्रयत्न कर रहे हैं। क्या वे ऊपर की पुकार सुनेंगे ? धर्म का एकमात्र नारा है-"हम आग बुझाने आये हैं, हम आग लगाना क्या जाने।" जिस धर्म का यह नारा नहीं है वह धर्म धर्म नहीं है। धर्म का अर्थ समझाते हुए वे मनुष्य से पूछते हैं-- मनुष्य ! तेरा धर्म तुझे क्या सिखाता है ? क्या वह भूले-भटकों को राह दिखाना सिखाता है ? सबके साथ समानता का, भ्रातृभाव का, प्रेम का व्यवहार करना सिखाता है ? दीन-दुखियों की सेवा-सत्कार में लगना सिखाता है ? घृणा और द्वेष की आग को बुझाना सिखाता है ? यदि ऐसा है तो तू ऐसे धर्म को अपने हृदय के सिंहासन पर विराजमान कर ! पूजा कर ! अर्चा कर ! इसी प्रकार का धर्म विश्व का कल्याण कर सकता है। ऐसे धर्म के प्रचार में यदि तुझे अपना जीवन भी देना पड़े तो दे डाल ! हँस - हँस कर दे डाल !! पाप आने से पहले चेतावनी देता है। मन में एक प्रकार का भय तथा लज्जा का अनुभव होता है। यदि हम उस चेतावनी को सुनना सीख ले तो बहुत अंशों तक पाप से बच सकते हैं। सामाजिक संघर्षों का मूल कारण बताते हुए आप कहते हैं"आज के दुःखों, कष्टों और संघर्षों का मूल कारण यह है कि मनुष्य अपना बोझ खुद न उठाकर दूसरों पर डालना चाहता है।" [ १८ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003414
Book TitleAmar Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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