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में क्षमा, दया, करुणा, सहन - शीलता और प्रेम का ठाठे मारता समुद्र लिए घूम रही है । काँटों के बदले फूल बिछा रही है।" ___इच्छा होती है 'अमर-वाणी' का प्रत्येक सूत्र लेकर उसकी विस्तृत व्याख्या करूँ । उसका प्रत्येक वाक्य जीवन-स्पर्शी है, हृदय से निकला हुआ है। किंतु, व्याख्या करने में यह भय है कि वह कहीं वहीं तक सीमित होकर न रह जाए । मनुष्य ने आत्मा, धर्म, जीवन, प्रेम आदि अन्तर् - तत्त्वों की व्याख्या का प्रयत्न किया तो क्या परिणाम निकला ? उन्हें सम्प्रदाय और पन्थ की दीवारों में घोंट डाला । असीम को ससीम बनाने का प्रयत्न मृत्यु के द्वार पर ले जाना ही है । वास्तव में देखा जाए, तो व्याख्या उन लोगों के लिए होती है जो समझना नहीं चाहते, केवल विवाद करना चाहते हैं । समझने की लगन वालों के लिए सूत्र ही पर्याप्त हैं । स्वातिनक्षत्र के समय सीप के मुंह में गिरी हुई वर्षा की बूद मोती कैसे बन जाती है, इसके लिए केवल बूंद को जानना पर्याप्त नहीं है, स्वाति को समझना भी उतना ही आवश्यक है। इसी प्रकार जीवन के सूत्र निर्मल हृदय पर अपने आप भाष्य बन जाते हैं। दूषित हृदय पर भाष्य भी कोई असर नहीं डालता। मैं समझता हूँ, इन सूत्रों को समझने का प्रयत्न साक्षात् चिन्तन, मनन और जीवन में प्रयोग द्वारा होना चाहिए, टीका-टिप्पणियों द्वारा नहीं। टीका-टिप्पणियों की परम्परा तो इनके भी चारों ओर सम्प्रदायवाद की बाड़ खड़ी कर देगी, और उसमें इनका दम घुट जाएगा ! _ 'अमर-वाणी' में कहीं-कहीं पुनरावृत्ति प्रतीत होगी । कहींकहीं तनिक-सा विरोधाभास भी। किंतु जीवन के विविध पहलुओं को सामने रखकर विचार किया जाए, तो उनका रहना आवश्यक प्रतीत होता है।
टाँचियों से गढ़-गढ़ कर बनाये गए ताजमहल में जितता सौन्दर्य
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