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है, हिमालय से अपने आप झरने वाले स्रोतों का सौन्दर्य उससे कहीं बढ़कर है। एक जड़ है, दूसरे में जीवन है । कृत्रिम साहित्य और स्वाभाविक उच्छवास के रूप में प्रकट हुए साहित्य में भी परस्पर यही भेद है। लाक्षणिक पण्डितों ने अपने जो माप-दण्ड बना रखे हैं, उनके अनुसार दूसरे प्रकार का साहित्य निर्दोष नहीं उतरता । किन्तु जीवन का अर्थ ही अपूर्णता है । पूर्णता आदर्श में रह सकती है जीवन में नहीं । जीवन में पूर्णता आते ही वह समाप्त हो जाएगा। जीवन गति का नाम है और पूर्णता का अर्थ है-गति की समाप्ति।
कहा जाता है, शिव ने जब ताण्डव नृत्य किया, तो उनकी डमरू में से चौदह सूत्र अपने आप प्रकट हुए। वे ही चौदह सूत्र शब्द-शास्त्र के आदि बीज बन गए। महावीर और बुद्ध के लिए भी यही कहा जाता है कि वे मन में सोचकर नहीं बोलते, किन्तु उनके मुख से वाणी स्वतः झरती है । वेदों की उत्पत्ति के लिए भी यही कहा गया है “यस्य निःश्वसितं वेदाः" अर्थात् वेद उसके निःश्वास मात्र हैं। इस प्रकार हम देखते हैं, प्रत्येक परम्परा में समस्त विद्याओं का मूल प्रातिभ प्रस्फोट माना गया है। 'अमरवाणी' में भी उसी की झलक है । कवि हृदय सन्त के इस उद्गार का साहित्यक क्षेत्र में अवतरण स्वागत के योग्य है।
दीपमालिका १९५४
इन्द्र
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