SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पोषणपूर्वक शोषण जब तक मनुष्य संसार में है, तब तक व्यापार के द्वारा या और किसी साधन के द्वारा रोटी - कपड़े का संग्रह करना ही पड़ता है, जीवन - व्यवहार के साधनों को जुटाना पड़ता है। आस-पास के जन-समाज में से कुछ-न-कुछ शोषण भी करना पड़ता है। परन्तु वह शोषण-पोषण पूर्वक होना चाहिए। गाय को दुहने जैसा होना चाहिए। जिस प्रकार गाय को दुहने से पहले खिलाते - पिलाते हैं, सेवा - शुश्रूषा करते हैं। अपना खिलाया - पिलाया जब दूध का रूप ले लेता है, तब उचित मात्रा में दुह लिया जाता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी चाहिए कि वह पहले आस - पास के समाज का पोषण करे, सेवा - शुश्रूषा करे और उसके बाद उचित मात्रा में अपने पोषण के लिए उसमें से रोटी - कपड़े का संग्रह करे। पोषण-पूर्वक शोषण गाय का दुहना है, तो पोषणहीन शोषण खून निचोड़ना है। कठोरता, कोमलता के साथ मनुष्य को कठोर होना हो, तो उसे नारियल के समान होना चाहिए। नारियल बाहर से रूखा, नीरस और कठोर होता हैपरन्तु अन्दर से कोमल, मधुर और जीवन - प्रद रस से सराबोर । पत्थर के टुकड़े की तरह अन्दर और बाहर सर्वत्र कठोर जीवन अपनाने से क्या लाभ ? जीवन - संगीत महापुरुष की परिभाषा है कि वह वज्र - सा कठोर हो, और नवनीत - सा मृदु । कठोरता और मृदुता का मधुर मिश्रण ही महापुरुषत्व का जीवन - संगीत है। जीवन की कला : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003414
Book TitleAmar Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy