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मानव-जीवन का ध्येय
मानव-जीवन का चरम ध्येय त्याग है, भोग नहीं, श्रेय है, प्रेय नहीं । भोग-लिप्सा का आदर्श मनुष्य के लिए सदैव घातक है, और रहेगा।
मानव-जीवन का अर्थ
मानव-जीवन संसार में प्रत्येक प्राणी के लिए सुन और शान्ति की स्थापना करने के लिए है, व्यक्तिगत भोग - लिप्सा में उलझे रहने और तदर्थ संघर्ष करने के लिए नहीं ।
मनुष्यता क्या अच्छा खाना मनुष्यता है ? अच्छा खाना तो रईसों के कुत्ते-बिल्ली भी खा लेते हैं। क्या ऊँचे और भव्य भवनों में रहना मनुष्यता है ? ऊँचे और भव्य भवनों में तो चिड़ियाँ भी घोंसला बना लेती हैं, कीड़े - मकीड़े भी निवास कर लेते हैं। क्या संस्कृत, प्राकृत आदि भाषा की रचनाओं के पढ़ लेने में मनुष्यता है ? तोते
और मैना भी संस्कृत के श्लोक बोल लेते हैं । क्या वीरता और बल में मनुष्यता है ? वीरता और बल में तो जंगल का शेर भी कहीं बड़ा क्रूर होता है। फिर मनुष्यता है कहाँ ? मनुष्यता है ऊँचे विचार और ऊँचे आचार में ।
मानवता का स्रोत
मैंने कठोर पर्वतमालाएँ देखी हैं, और देखी हैं उन पर हरीहरी घास और झाड़ियाँ ! पत्थर की कठोर चट्टानों से मोती के समान शीतल एवं स्वच्छ झरने बहते देखे हैं । क्या मनुष्य पहाड़ से
मानवताः
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