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मानवता का केन्द्र
मानव ! क्या तू अपने - आपको पहचानता है ? यदि हाँ, तो बतला तू कौन है ? तू स्थूल शरीर है या इसके कण-कण में समाया अत्मा ? जो आत्मा की ओर अग्रसर होता है, वह मनुष्य है, और जो शरीर के घेरे में ही अवरूद्ध है, आगे नहीं बढ़ता, वह नर-देह के रूपमें पशु है । मानवता का केन्द्र वस्तुतः आत्मा है, शरीर नहीं।
कर्तव्य और अधिकार
मानव ! तेरा अधिकार कर्तव्य करने तक है, फल तक नहीं। तू जितनी चिन्ता फल की रखता है, उतनी चिन्ता कर्तव्य की क्यों नहीं रखता ? किसान खेत को जोत-जात कर तैयार कर सकता है, बीज बो सकता है, सिंचाई की व्यवस्था कर सकता है, खाद डाल सकता है, रखवाली कर सकता है, परन्तु बीज को अंकुरित करने और उसे धीरे-धीरे विकसित करने का काम तो प्रकृति का है। इस सार्वमौम अटल सिद्धान्त को, क्या तू, अपने कर्तव्य की कृषि में नहीं अपना सकता ?
मानव का मूल्य
किसी भी मनुष्य का मूल्यांकन करते समय न उसके धन को देखो, न जन-गण को देखो और न उच्च पद को देखो ! मनुष्य का वास्तविक मूल्य प्रामाणिकता के साथ अपने यथाप्राप्त कर्तव्य का पालन करते रहना है । जो मनुष्य जितनी ही अधिक योग्यता और ईमानदारी के साथ अपना उत्तरदायित्व निभाता है, कर्तव्य के लिए जीता - मरता है, वह उतना ही अधिक मूल्यवान हो जाता है।
अमर वाणी
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