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आस्रव का हेतु है, कर्म - बन्धन का कारण है । उस से निर्जरा और मोक्ष की आशा रखना, आकाश पुष्प की कल्पना मात्र है, और कुछ नहीं ।
आचारहीन पाण्डित्य
आचार-हीन पाण्डित्य घुन लगी हुई लकड़ी के समान अन्दर से खोखला होता है । रोगन की पालिश उसे बाहर से चमका सकती है, उसके अन्दर शक्ति नहीं डाल सकती ।
भक्ति, कर्म एवं ज्ञान - योग
बचपन से यौवन और यौवन से वार्द्धक्य, जिस प्रकार जीवन का आरोहण क्रम है, उसी प्रकार साधना का भी - भक्ति-योग से कर्म - योग और कर्म - योग से ज्ञान - योग के रूप में ऊर्ध्वमुखी आरोहण क्रम है । एक दृष्टि से भक्ति योग में साधना की कोई विशिष्टता नहीं रहती और अन्तिम ज्ञान - योग की पूर्णता में भी उसकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, इसलिए कर्म - योग ही साधना का मुख्य केन्द्र रहता है । किन्तु हमें एक बात भूल नहीं जानी है कि हमें कर्म - योग में भक्ति योग तथा ज्ञान - योग का उचित सहारा लेना पड़ता है । इसलिए साधना - स्वरूप केन्द्र पर स्थित होकर हमें भक्ति एवं ज्ञान का आश्रय लेकर चलना पड़ता है । रूपक को भाषा में- भक्ति हमारा हृदय है, ज्ञान हमारा मस्तिष्क है और शरीर, हाथ-पैर आदि कर्म है । तीनों का सुन्दर समन्वय ही सम्यक् - साधना का आधार है ।
ज्ञान और क्रिया
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