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एक सन्त के मन में समय-समय पर जो शाश्वत विचार उठा करते हैं, 'अमर-वाणी' उन्हीं का अविकल संग्रह है । जो व्यक्ति पथ के अन्त तक दूसरे की अंगुली पकड़ कर चलना चाहते हैं, अपनी आँखों से कुछ काम नहीं ले सकते, उन्हें 'अमर-वाणी' में अधूरापन प्रतीत होगा। किन्तु जो केवल मार्ग-दर्शन की अपेक्षा रखते हैं, जो अंधेरे में चलने के लिए केवल एक दीपक की आकांक्षा रखते हैं, उन्हें इसमें सब-कुछ मिल सकेगा।
जब चिंतनकार अध्ययन की भूमिका से उठ कर अनुभव की भूमिका पर आ खड़ा होता है, तभी ऐसे अमर वाक्यों का उदय होता है । आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध में ऐसे ही फुटकर वाक्यों का बाहुल्य है। किन्तु, वे इतने जीवन-स्पर्शी हैं कि विशाल ग्रन्थों से भी अधिक महान् कहे जाते हैं । वे अपने आप में पूर्ण हैं। बड़े-से-बड़े ग्रन्थ उनकी तुलना में छोटे हैं। विशाल वट - वृक्ष की शाखाएँ, पत्ते, स्कन्ध आदि सब एकत्रित कर दिए जाएँ, फिर भी बीज का उनसे कहीं बड़ा अस्तित्व होता है । 'अमर-वाणी' उन्हीं बीजों का संग्रह है।
उपाध्याय कवि श्री अमरमुनिजी सन्त हैं, कवि हैं और प्रौढ़ समालोचक भी हैं । केवल शाब्दिक रचना के नहीं, प्रत्युत समाज और धर्म के भी सर्जक हैं। उन्होंने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से जिन सत्यों का साक्षात्कार किया है, वे इस संग्रह में सन्निहित हैं।
वे कहते हैं- "मनुष्य के सामने एक ही प्रश्न है, अपने जीवन को 'सत्यं, शिवं और सुन्दरं' कैसे बनाएँ ?" उद्दाम लालसाओं की तृप्ति के लिए पागल बना हुआ मनुष्य, क्या इस प्रश्न को समझने का प्रयत्न कर पाएगा ? जिस दिन यह प्रयत्न प्रारम्भ होगा, वह विश्व-मंगल का प्रथम प्रभात होगा।
प्राचीन काल से समस्त विश्व शान्ति के लिए दो उपाय बरतता आ रहा है । जो बलवान है, उसे धन, संपत्ति, भोगविलास
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