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________________ अमर-वाणी : एक परिचय संस्थाओं तथा परीक्षाओं के आवेदन - पत्र भरते समय धर्म का खाना देखकर मेरे मन में कई बार आया-क्या मनुष्य के लिए जैन, बौद्ध, सनातनी, मुसलमान या ईसाई बनना जरूरी है ? क्या ऐसा नहीं हो सकना कि हम इनमें से कुछ न हों और फिर भी मनुष्य बने रहें ? मनुष्य ने मानवता को आँकने के लिए कुछ सांचे बनाए और सारी मानवता को उनमें भरने का प्रयत्न किया। किन्तु, वास्तव में देखा जाए, तो उसका असली स्रोत कभी किसी सांचे में बद्ध नहीं हुआ। मानवता सांचों के सहारे जीवित नहीं रहती, अपितु सांचे मानवता के सहारे जीवित रहते हैं। उपनिषदों में वर्णन आता है कि ब्रह्म, आकाश और पृथ्वी में व्याप्त हो कर भी दस अंगुल ऊपर उठा रहा। यही मानवता और सत्य के लिए भी है। साहित्य के लिए भी वही बात है। जव कोई नई रचना सामने आती है, तो हम उसको दर्शन, धर्म-शास्त्र, काव्य, इतिहास आदि धाराओं में सीमित करके देखना चाहते हैं। हम उन जलकणों को भूल जाते हैं, जो किसी धारा में न बहकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखते हैं और इसीलिए सभी धाराओं से वे अधिक निर्मल भी रह पाते हैं । हम वृक्ष की वर्तमान शाखाओं को गिनकर समझ लेते हैं कि सारे वृक्ष को जान लिया। उस मूल को भूल जाते हैं, जहाँ से शाखाएँ सतत प्रस्फुटित होती रहती हैं। _ 'अमर-वाणी' वह धर्मग्रन्थ है, जो जैन, बौद्ध आदि सम्प्रदायों में विभक्त नहीं हो सकता । मानवता का वह दिव्य संदेश है, जो किसी सांचे में नहीं ढल सकता। वह साहित्य है, जो वर्तमान धाराओं में परिगणित नहीं हो सकता । वह बिन्दु है, जो धारा बनकर बहना पसन्द नहीं करता। वृक्ष का वह स्कंध है, जहाँ अनेक शाखाएँ अंकुरित होती हैं। [ ५ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003414
Book TitleAmar Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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