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जीवन की कला
जीवन का स्वरूप
जीवन क्या है ? परस्पर विरोधी तूफानों का संघर्ष, जो इस संघर्ष में अड़ा रहा, बढ़ता रहा, भूला - भटका नहीं, वह शेर है बाकी सब गीदड़ है।
चलना ही जीवन है
चले चलो, चले चलो ! देखो कहीं खड़ें न हो जाना । चलना जीवन है, और खड़े होना मृत्यु । व्यक्ति हो या समाज, जो खड़ा हो गया, बह समाप्त हो गया और जो चलता रहा, वह प्रतिदिन नया जीवन प्राप्त करता रहा।
झरने बहते रहे, बीच के साथियों से मिल - मिल कर नदी बनते रहे और सारे मार्ग में जन - कल्याण करते हुए समुद्र में पहुँच कर समुद्र बन गए, परन्तु गाँव का पोखर बिना प्रवाह के पड़ा-पड़ा सड़ गया, गन्दा हो गया, मच्छरोंकी जन्मभूमि बन कर वातावरण को दूषित करता हुआ, जन - जन की घृणा का पात्र बन कर समात हो गाया।
जीवन की कला:
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