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आपस में टकराते - से मालूम होते थे, सब मिलकर एक अखण्ड मधुर गान से प्रतीत होने लगे। तब मुझे एक दार्शनिक विचारणा ध्यान में आई कि साधक, अपने मन को भव-प्रपंच से जितना भी ऊँचा उठाएगा, जितना भी अलग करेगा, उतना ही जीवन के परस्पर विरोधी मानसिक द्वन्द्व कम होंगे और अखण्ड एकाग्रता एवं एकरसता का आनन्द आएगा ! यदि नीचे उतरते हैं, तो भेद की प्रतीति होता है, और ऊँचे चढ़ते हैं, तो अभेदानुभूति होती है ।
दुःख का वरदान दुःख की चोट से क्यों घबराते हो ? उसे पड़ने दो, जोर से पड़ने दो। नगाड़ा अपने आप नहीं बजता। वह बजता है डंके की चोट पड़ने पर ! ज्योंही डंके की चोट पड़ी कि नगाड़े की गम्भीर ध्वनि दूर - दूर तक जनता के कानों को आकृष्ट करने लगती है । दुःख की कड़ी से कड़ी चोट भी, यदि जीवन का नगाड़ा मजबूत है, तो यश की गम्भीर ध्वनि से दिग्-दिगन्तर गुंजाने के लिए है।
खरा सोना बनिए
आग से घास - फूस डरता है। ज्योंही आग का स्पर्श हुआ कि भस्म ! परन्तु खरे सोने को क्या डर है ? आग में पड़कर सोने की दमक जाती नहीं, वह और भी अधिक चमकती - दमकती है। मनुष्य ! तू सोना बन, धास-फूस नहीं। फिर दुःख की आग, चाहे कैसी ही हो, वह तुझे चमकाएगी, जलाएगी नहीं।
खतरों से खेलना सीखिए
समाज में प्रतिष्ठा या सम्मान उन लोगों के लिए है, जो बढ़कर आगे आते हैं, सेवा में जुटते हैं, संघर्ष में पड़कर भी मस्नक पर बल
जीवन की कला :
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