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लगा । परन्तु, ज्योंही एक दिन सिंह को गरजते और भेड़-बकरियों को भागते देखा, तो अपने स्वरूप को समझने में, उसे देर न लगी । स्वयं भी गरजा, भेड़-बकरियाँ भाग खड़ी हुई । आत्मा ! तू भी सिंह है, कहाँ जड़ पुद्गल के संग में अपने को भूल बैठा है ? तेरी एक गर्जना काफी है, जड़ पुद्गल के विकारी भावों को भागते देर नहीं लगेगी !
देखने वाले को देखो
आँख नहीं देखती । वह तो एक खिड़की है, उसके द्वारा कोई और ही देख रहा है । वह जब देखता है, आँखें खुली होने पर देखता है, आँखें बन्द होने पर देखता है, सोते रहने पर भी देखता है और जागते रहने पर भी । बस, आँख से परे उस आँख वाले को देखो, देखने वाले को देखो ।
अन्तर्दर्शन :
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ज्ञाता
इन्द्रिय और मन आदि के माध्यम से जो ज्ञान होता है, उसके सम्बन्ध में यथार्थ स्थिति यह है कि ज्ञान, आत्मा का स्वरूप है, इन्द्रिय आदि का नहीं । इन्द्रिय ज्ञान, मनो- ज्ञान आदि जो कहा जाता है, वह आत्मा के ज्ञान का इन्द्रिय आदि में उपचार है । शरीर, इन्द्रिय आदि में जब तक आत्मा - ज्योति प्रज्वलित रहती है, चैतन्य तत्त्व व्याप्त रहता है, तब तक उसकी क्रियाएँ शरीर के अंग-प्रत्यंगों इन्द्रिय एवं मन आदि के माध्यम से परिलक्षित होती रहती हैं । परन्तु, वास्तव में वे उनकी अपनी नहीं, आत्मा की है । अत: आत्मा ही ज्ञाता - द्रष्टा है ।
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द्रष्टा
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