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विषमता का राज्य एक तरफ दावतों में मोहन-भोग उड़ रहे हैं, तो दूसरी तरफ भूखे पेट को अन्न का एक घुना दाना भी नहीं है ! एक तरफ सोनेचाँदी के तारों से गुथे हुए, रेशमी वस्त्र चमचमा रहे हैं, तो दूसरी तरफ लज्जा ढाँपने को फटी - पुरानी लँगोटी भी नहीं है ! एक तरफ आकाश को चूमने वाले संगमर्मर के महल खड़े हैं, तो दूसरी तरफ कच्ची मिट्टी की जर्जर दीवारों पर घास का छप्पर भी नहीं है ! यह है विषमता, जो देश की शक्ति को, शान्ति को, गौरव को, प्रतिष्ठा को निगले जा रही है ! आज सारी सभ्यता, संस्कृति और कलचर का केन्द्र रुपया हो गया है ! आज के युग में मानवता की कोई आवाज नहीं । आज मनुष्य की मुट्ठी गर्म है और उसमें झनकार है अटन्नियों, चवनियों ,अधन्नों और पैसों की ! और इस झनकार में डूब गया है, मानवता और धर्म का मर्म स्वर ! यह स्थिति बदलनी होगी ! रुपये को सर्वश्रेष्ठता के पद से नीचे उतारना होगा ! आज का पूंजीवाद एक अजगर है, जो निगल रहा है गरीब जनता के रोटी-कपड़ों को, दीन-ईमान को। इसके जहरीले दाँतों को उखाड़ डालने में ही भूखी जनता का कल्याण है !
परिग्रह का अभिशाप एक ओर, दिन-रात कड़ी धूप और सर्दी में तन तोड़ परिश्रम करने के बाद भी भर - पेट भोजन नहीं मिलता और नंगी जमीन पर तारों की छत के नीचे सोना पड़ता है।
दूसरी ओर, दीन - हीन पद-दलितों का रक्त चूस कर मेवामिष्टान्न उड़ते हैं । और सोने के गगन - चुम्बी महलों में फूलों की सुगन्धित सेज पर पहर दिन चढ़े तक खर्राटे लेते हैं ।
यह अभिशाप परिग्रहवाद का है और जब तक यह दूर नहीं होगा,
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अमर वाणी
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