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पुरुषार्थ
उद्यम ही सब - कुछ है। पुरुषार्थ ही सबसे बड़ी शक्ति है। अपने आप रोटी उठकर मुंह में नहीं चली जाती-'नहि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।' सोया आदमी मरे के बराबर है। जागकर अंगड़ाई लेकर, खड़े होकर चल पड़ना ही विजय - यात्रा है-''जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पेठ।"
भाग्य और पुरुषार्थ
आज का मानव - समाज भाग्यवाद की चक्की में बुरी तरह पिस रहा है। जिसे देखो, वही यही कहता है कि भाग्य में धक्के खाने लिखे हैं, सो खा रहा हूँ। क्या करूँ, भाग्य नपुंसकता का प्रतिनिधि है, निराशा का झण्डावरदार है।
स्व-देश का मोह
मैं देखता हूँ, हजारों आदमी घर से बाहर निकलते हुए डरते हैं, झिझकते हैं, रोते हैं। उनके अन्तर् - मन में उपभोक्ता की बुद्धि तो है, परन्तु कर्ता की बुद्धि नहीं है । उनके जीवन में न कोई अनूठा साहस है और न कोई अनूठी तरंग । कुछ लोग जब अपनी दुर्बलता को स्वदेश - प्रेम के नाम पर छुपाने लगते हैं, तो मैं उनसे पूछता हूँ-- सूर्य, चाँद और तारों का स्व-देश कौन है और पर-देश कौन है ? जो आगे बढ़कर धूप में, छाँह में, सरदी में, गरमी में प्रतिक्षण चलना जानते हैं, उन पुरोगामियों के लिए सारा विश्व ही स्व-देश है।
'को विदेश: सविद्यानां ? कि दूरं व्यवसायिनाम् ?' ज्ञानयोगियों के लिए कौन-सा विदेश है ? कोई नहीं। और
यौवन :
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