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________________ भगवान् मानती है | अतः अतिथि की सेवा ईश्वर - भाव से करो, इसी में जीवन की सफलता है । ओ मानव ! तेरे मन का गड्ढा क्या कभी भर सकता है ? संसार में परिग्रह की सीमा है । धन, सम्पत्ति एवं सुखोपभोग के साधन गिने चुने हैं । और मन की तृष्णा ? अरे, वह तो असीम है, असीम ! क्या असीम को ससीम से भरा जा सकता है कभी ? क्या मिट्टी का ढेला आकाश के उदर को भर सकता है ? क्या धधकती आग में ईंधन डालने से वह बुझ सकती है ? नहीं, कभी नहीं, तीन काल में भी नहीं ! तुझे अपने मन के घेरे को छोटा बनाना चाहिए | तुझे अपनी आवश्यकताओं का क्षेत्र संकुचित करना चाहिए । मन की भूख संग्रह से नहीं मिट सकती । वह तो मिटेगी सन्तोष के द्वारा, त्याग के द्वारा। आग को बुझाने के लिए पानी चाहिए, ईंधन नहीं । १६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only अमर वाणी www.jainelibrary.org
SR No.003414
Book TitleAmar Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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