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सन्त
सन्त
सच्चा सन्त नख से लेकर शिखा तक शीतल रहता है। उसके मन के कण-कण में अहिंसा, दया और करुणा की सुगन्ध महकती रहती है। उसकी ज्ञान-चेतना प्रातःकाल सो कर, अंगड़ाई ले कर, तन कर खड़े हुए मनुष्य के समान सदा जागृत रहती है ।
सच्चा साधु
सच्चा साधु कष्ट देने वाले को भी क्षमा करता है । चन्दन अपने काटने वाले कुल्हाड़े को भी सुगन्ध से भर देता है । ज्ञानमार्ग पर चलने वाले साधक सम्पूर्ण विश्व के साथ आत्मवत् व्यवहार करते हैं । अत: कष्ट देने वाले को भी वे अपना ही अंग समझते हैं। इसके लिए एक उदाहरण है । अपने दाँतों से भी जीभ के कट जाने पर कोई भी मनुष्य उन्हें कष्ट नहीं देना चाहता; क्योंकि वह जानता है कि जीभ में तो दर्द है ही, दाँतों में भी तकलीफ क्यों की जाए ?
ते धन्याः
स्वार्थ की अपेक्षा सेवा अधिक मूल्यवान है। धन्य हैं वे महानुभाव, जो सेवा के लिए अपने स्वार्थ का बलिदान करते हैं या करने को सदा तत्पर रहते हैं !
सन्त:
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