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अपराध है । भगवान् महावीर ने कहा है- दुनिया में भले ही किसी और की मुक्ति हो जाए, परन्तु बाँट कर नहीं खाने वाले की मुक्ति कभी नहीं हो सकती
__ 'असंविभागी नहु तस्स मोक्खो ।' यह कहाँ की मनुष्यता और न्यायवृत्ति है कि हमारा सगा भाई मनुष्य भूखा और नंगा रहे और हम आवश्यकता से भी अधिक खाएँ, आवश्यकता से अधिक पहनें, आवश्यकता से अधिक सुखसाधन संग्रह कर उस पर साँप की तरह फन फैलाकर बैठे रहें ! आवश्यकता से अधिक संग्रह मनुष्य को राक्षस बना देता है। और अपनी आवश्यकताओं को घटाकर यथावसर अपने सुख - साधनों में दूसरों को भी साझीदार बनाना ऊँची श्रेणी की मनुष्यता है। यह मनुष्यता ही विश्व की मूलाधार वस्तु है।
जैन - अहिंसा जैन - धर्म की अहिंसा इतनी सूक्ष्म और इतनी विराट् है कि उसका अनुसरण करना कुछ लोग असाध्य एवं अव्यवहार्य समझते हैं। परन्तु, क्या वस्तु - स्थिति ठीक ऐसी ही है ? चीनी प्रोफेसर तान-युन-शान ने जैन अहिंसा मार्ग की उपर्युक्त मिथ्या धारणा का निराकरण करते हुए कहा कि यह मार्ग असाध्य इसलिए प्रतीत होता है कि मानवता अभी उतनी प्रगति नहीं कर पा सकी है। जब मानवता का पर्याप्त विकास हो जाएगा और वह एक उच्चतर स्तर पर पहुँच जाएगी, तो अहिंसा को सभी लोग व्यवसाय एवं आदरणीय मान कर अपने जीवन में उसे बरतने लगेंगे।
__ चीनी सन्त की वाणी में अहिंसा के देवता-भगवान् महावीर की वाणी का स्वर गूंज रहा है, जिसमें उन्होंने कहा है- “सब्वभूयप्पभूयस्स ---" अर्थात् सर्वभूतात्म भूत बनो।
जैनत्व :
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