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जैन-धर्म : आत्म-धर्म
जैन - धर्म वीतराग भावना का धर्म है। अतः उसमें आज के साम्प्रदायिक पक्षपात, कदाग्रह या मताग्रह को कहाँ स्थान है ? जो अपने शरीर पर भी मोह नहीं रखता, वह भला शरीर पर लगे धर्म-चिन्हों का क्या मोह रखेगा? धर्म का सम्बन्ध आत्मा से है। धर्म न शरीर में है, न शरीर पर लगे बाहरी चिन्हों में । मठ, मंदिर और मस्जिदों की तो बात ही क्या है ?
जैनत्व
जैनत्व जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है। अतएव यह हमें संघर्ष का उपदेश देता है कि जहाँ एक ओर आत्मा के विकारों को दूर करने के लिए धर्म-साधना के पथ पर संघर्ष करो, वहाँ समाज के विकारों और बुराइयों को दूर करने के लिए, अन्याय और अत्याचार को मिटा कर शान्ति स्थापना के लिए भी संघर्ष करो।
अत्याचार का डटकर विरोध करना और उसे नष्ट करना, पाप नहीं है, प्रत्युत एक पवित्र कर्तव्य है। प्रत्येक संघर्ष के मूल में पवित्र संकल्प होना चाहिए, फिर कोई पाप नहीं।
जैन-धर्म को सार्वभौमता
जैन - धर्म में जीवमात्र का समान अधिकार है। यहाँ देश, जाति या कुल आदि के कारण किसी भी प्रकार की प्रतिबन्धता नहीं है। फिर हमें क्या अधिकार है कि हम एक सार्वजनिक तथा सार्वभौम धर्म को अमुक देश, जाति अथवा सम्प्रदायवाद के संकीर्ण घेरे में अवरुद्ध रखें ? धर्म को तो पवन के समान सर्व - स्पर्शी होना चाहिए।
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अमर - वाणी
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