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________________ बढ़े चलो बढ़े चलो आज तक न मालूम कितने देवी - देवता मनाए, कितने ईंटपत्थर पूजे और कितने गंगा आदि नदियों और सागरों में नहाएधोए । परंतु, क्या लाभ हुआ ? आत्मा का एक बंधन भी नहीं टूटा, एक दुःख भी कम नहीं हुआ, एक दाग भी तो धुलकर साफ नहीं हुआ। व्यर्थ ही क्यों भटक रहे हो ? अपनी आत्मा के अन्तर्भाव को प्रकट करो, वीरता से सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ो। लड़खड़ाओ नहीं, गिरो नहीं, वापस मुड़ो नहीं, परमात्म - पद पाना तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है । संसार की कोई भी शक्ति ऐसी नहीं, जो तुम्हें अपने उस पवित्र अधिकार से वंचित कर सके। साधना-पथ साधक ! देख, कहीं बीच में ही साधना भंग करके मत बैठ जाना ? सफलता कहीं इधर - उधर गलियों में पड़ी मिल जाने वाली चीज नहीं है । वह तो जी की चोट है। उसकी राह मर-मर कर जी उठने की है। देखते नहीं कि सूर्य को प्रातःकाल प्रकाश के शिखर पर पहुँचने तक रात भर अंधकार से जूझना पड़ता है ! बढ़े चलो: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003414
Book TitleAmar Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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