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________________ जब मनुष्य आगे बढ़ता है, स्व - रक्षण से पारिवारिक रक्षण की चेतना से अनुप्राणित होता है, तो उसका जीवन-लक्ष्य परिवार की सीमा में पहुँच जाता है। इसके आगे समाज - रक्षण, और राष्ट्र - रक्षण की विकसित चेतना का नम्बर आता है। परन्तु, रक्षण-वृत्ति के विकास का महत्त्व यहीं तक सीमित नहीं है, उसका चरम विकास तो विश्व - रक्षण की चेतना में ही सन्निहित है। विश्व - रक्षण की उदार मनोवृत्ति को रखने वाला और उसी के अनुसार अपना विश्व - हितंकर आचरण करने वाला मानव ही मानवता का सच्चा पुजारी कहला सकता है । क्योंकि अन्ततोगत्वा विश्व - रक्षण की विराट् वृत्ति में ही मानवता की सर्वोच्च परिणति निहित है । स्व - रक्षण को सर्व - रक्षण वृत्ति में बदल देना ही मानव - जीवन की सर्व-श्रेष्ठ और ज्योतिष्मती दिशा है। मानवता मानव एकमात्र 'स्व' में ही सीमित रहने के लिए नहीं है। मनुष्य की महत्ता उसकी परार्थ-वृत्ति के विकासे में ही है । अतएव हमारी हृदय - वीणा का प्रत्येक तार विश्व-मैत्री की पवित्र भावना से प्रतिक्षण झंकृत रहना चाहिए । प्राणी-मात्र के कल्याण के लिए आत्मोत्सर्ग करना ही मानव - जीवन की सफलता का मूलमंत्र है, यह अमर सिद्धान्त कभी भी भूलने की चीज नहीं है। मनुष्य क्या है ? मनुष्य न केवल शरीर है, न केवल मन है और न केवल आत्मा है। इन सब की समष्टि का नाम ही मनुष्य है। अतएव मनुष्य का यह परम कर्तव्य है कि वह शरीर, मन और आत्मा तीनों को समान रूप से सन्तुलित रखे, इन्हें अस्वस्थ न होने दे। मानवता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003414
Book TitleAmar Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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