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________________ विश्व-मंगल का मार्ग बताते हुए उपाध्यायश्री एक नई घोषणा का उन्मेष करते हैं-"भारत के प्रत्येक नर - नारी को प्रतिदिन प्रातः और सायं यह गंभीर घोषणा करनी चाहिए कि मानव के बीच कोई भेद नहीं। मानवमात्र को जीवन विकास के क्षेत्र में सर्वत्र समान अधिकार है । 'मैं' को समाप्त करके 'हम' को इतना विशाल बना दो कि सारा विश्व उसमें समा जाए।" अतः वे कहते हैं-"बूद नहीं, सागर बनो।" बूद का जीवन अत्यन्त क्षुद्र है, किन्तु समुद्र में मिलने पर वही अमर बन जाती है। अनादि काल से सूर्य की किरणें उसे सुखाने का प्रयत्न कर रही हैं, किन्तु समुद्र उतना ही पूर्ण है, जितना पहले था। जैन-साधना का मूलमन्त्र सामायिक अर्थात् समता को आराधना है। उसकी विभिन्न व्याख्याओं द्वारा मुनिश्री ने जीवन-विकास के सभी अंगों का निष्कर्ष बता दिया है। अन्तरंग और बहिरंग जीवन में समता, धर्म का सर्वस्व है, अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में मानसिक सन्तुलन सफलता का मूलमन्त्र है, शत्रु और मित्र पर समबुद्धि रखते हुए लक्ष्य को सामने रखकर बढ़ते जाना कर्तव्य का मूलमन्त्र है, जो भगवान् कृष्ण द्वारा गीता में विस्तारपूर्वक बताया गया है । दुःख की अपेक्षा सुख में समभाव का रहना अधिक कठिन है। जो व्यक्ति त्याग और तपस्या के द्वारा बल प्राप्त करता है, तेज का संचय करता है, वही अधिकारारूढ़ होने पर किस प्रकार समता को खो देता है, और जिसका परिणाम यह होता है कि वह निस्तेज एवं निर्वीर्य हो जाता है, प्रतिदिन का इतिहास इसका उदाहरण है। रावण से लेकर कांग्रेस का वर्तमान पतन इसी सत्य को प्रकट करता है। उपाध्यायश्री स्पष्ट शब्दों में कहते है-"हमारा सुन्दर भविष्य आपसी भाई-चारे पर निर्भर है। इस विशाल पृथ्थी पर एक कोने से दूसरे कोने तक बसे हुए मानव-समूहों में जितनी अधिक भ्रातृत्व भावना विकसित होगी, उतनी ही शान्ति की वृद्धि होगी।" [ ८ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003414
Book TitleAmar Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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