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तू ही अपना मित्र है
वस्तुतः जब तक आत्मा की दृष्टि बहिर्मुखी रहती है, तब तक उसके लिए सर्वत्र बन्धन - ही - बन्धन हैं। जब वह बाहर में किसी मित्र को खोजेगी, तो एक मित्र के साथ, बाहर में अनेक शत्रु भी मिल जाएँगे। किन्तु, जब अन्तर्मुखी हो कर अपनी आत्मा को ही, स्वयं में स्वयं को ही मित्र के रूप में देखेगी, तो बाहर में न कोई मित्र होगा और न कोई शत्रु ही होगा। संसार के सभी बाह्य शत्रु और मित्र नकली प्रतीत होंगे। श्रमण भगवान् महावीर की दिव्य देशना है
"पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं, किं बहिया मत्तमिच्छसि ?"
- आचारांग, १, ३, ३.
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अमर - वाणी
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