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भगवान् और भक्त जो मनुष्य जितना ही आग के समीप होगा, वह उतना ही अधिक प्रकाश पाएगा। आप इसे पक्षपात कहें या और कुछ, यह आपकी इच्छा पर निर्भर है । भगवान् और भक्त का सम्पर्क-बिन्दु भी ठीक इसी कोटि का है। यहाँ कर्तृत्व और अकर्तृत्व का उतना प्रश्न नहीं, जितना कि सम्पर्क की घनिष्ठता और दूरी का प्रश्न है ।
सच्ची पूजा __ ईश्वर की पूजा न फल-फूल चढ़ाने में है, और न दीप जलाने में। ईश्वर की सच्ची और श्रेष्ठ पूजा यही है कि मनुष्य ईश्वरीय आदर्शों, अच्छे और भले विचारों को, अपने आचरण में उतारे, ईश्वर के निर्देशानुसार अपना जीवन व्यतीत करे ।
कर्मवाद और भक्तिवाद हम ही कर्म करते हैं और हम ही उसका फल भोगते हैं। यह जैन-धर्म का कर्मवाद है।
भगवान् करता है और भगवान् ही उसका फल भोगता है। यह वैष्णव-धर्म का भक्तिवाद है।
जीवन की समस्या दोनों ही वादों से हल हो सकती है, यदि ईमानदारी के साथ उनको जीवन में उतारा जाए तो। निर्द्वन्द्वता जीवन का रस है और यह रस दोनों ही वादों के द्वारा प्राप्त हो सकाता है।
भक्ति का रहस्य भक्ति का अर्थ दासता नहीं है, गुलामी नहीं है । भक्ति का अर्थ है-अपने आराध्य - देव के साथ एकता और अभेदता की अनुभूति ।
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अमर - वाणी
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