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प्रथमः] भाषाटीकासहितः (१३)
दुर्गन्धः शिथिलश्चैव विष्टोत्सर्गो यदा भवेत् । तदाजीर्णमलं वैद्यैर्दोषज्ञैः परिभाष्यते ॥३॥ वातके कोपसे मल टूटा हुआ, झाग मिला, रूखा, धूम्रवर्ण और वात कफकी विकृतिसे पीला और लाल मिला (नारंगी) होता है, वात पित्तके योगसे मल बद्ध कभी टूटा पीला काला ऐसा होता है
और कफपित्तके कोपसे पीला, काला और किंचित् आर्द्र तथा चीकट ऐसा होता है, त्रिदोष ( सन्निपात ) के कोपसे काला, पीला, टूटा, सफेद और बद्ध ऐसा मल उतरे, अजीर्णवालेके मल दुर्गंधियुक्त शिथिल होता है ॥ १.-३ ॥
कपिलं ग्रंथियुक्तं च यदि व!ऽवलोक्यते । प्रक्षीणमलदोषेण दूषितः परकथ्यते ॥ ४ ॥ सितं महत्पूतिगन्धं मलं ज्ञेयं जलोदरे । श्यामं क्षये त्वामवाते पीतं सकटिवेदनम् ॥५॥ अतिकृष्णं चातिशुभ्रमतिपीतं तथाऽरुणम् । मरणाय मलं किन्तु भृशोष्णं मृत्यवे ध्रुवम् ॥६॥ वातादि दोष क्षीण होनेसे मल कपिल और गाढ़ा होता है । सफेद और अत्यन्त सडी गंधयुक्त मल जलोदर (जलंधर) वालेका होता है । क्षयीवालेका मल काला होता है और आमवात रोगवालेकी कमरमें पीडा सहित पीला होता है । अतिकाला, अत्यन्त सफेद अत्यन्त पीला और अतिलाल तथा अत्यन्त गरम मल समीपमृत्युवाले रोगीका होता है ४॥-६ ॥
अत्यग्नौ पीडितं शुष्कं मन्दानौ तु द्रवीकृतम् । दुर्गन्धं चन्द्रिकायुक्तमसाध्यं मललक्षणम् ॥७॥
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