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योगचिन्तामणि:
जिह्वापरीक्षा |
वातको प्रसुप्ता च स्फुटिता मधुरा भवेत् । स्तब्धा वर्णेन हरिता जिह्वा लालां प्रमुञ्चति ॥ १॥ पित्तकोपे तु रक्ताभा तिक्ता दुग्धे च जायते । जिह्वा दाहान्विता बिबाकंटकैरिव सर्वतः ॥ २ ॥
( १२ )
पाकाधिकारः
फोदये तु भवेज्जिह्वा स्थूला गुर्वीं विलेपनी । सुस्थूलकंटकोपेता क्षारा बहुकफावहा ॥ ३ ॥ दोपद्वये द्विदोपोका लवणा रसना भवेत् । सर्वजिह्वा त्रिदोषेस्याद विकृतौ च कुलक्षणे ॥ ४ बात के कोपसे जीभ शून्य फटीसी और मीठी होती है तथा स्तब्ध और हरितवर्ण तथा लार गिरे, पित्तके कोपसे जिह्वा लाल और दूध पीनेसे कड़वी होय, दाहयुक्त कंदूरी फलकासा वर्ण और कांटोंसे आच्छादित होती है, कफके कोपसे मोटी, भारी, कफसे लिहसी, मोटे कांटेयुक्त, खारी और बहुत कफ गेरनेवाली ऐसी जीभ होती है, दो दोषके कोपसे दो दोषोंके लक्षण होते हैं और नोनकासा स्वाद होता है और त्रिदोष के कोपसे तीनों दोषोंके लक्षणयुक्त और खोटे लक्षणयुक्त होती है ॥ १--४ ॥
मलपरीक्षा |
त्रुटितं फेनिलं रूक्षं धूम्रलं वातकोपतः । वातश्लेष्मविकारे च जायते कपिशं मलम् ॥ १ ॥ बुद्धं सुत्रुटितं पीतं श्यामं पित्तानिलाद्भवेत् । पीतं श्यामं श्लेष्मपित्तादीषदाई च पिच्छलम् ॥ २ ॥ श्यामं त्रुटितपीताभं बद्धवेतं त्रिदोषतः ।
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