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प्रथमः ]
भाषा टोकासहितः ।
( ११ )
संशयः ॥ ८ ॥ सोम्यदृष्टी प्रसन्नाभे प्रकृतिस्थे मनोरमे । नेत्रे कथयतः शीघ्रं रोगशान्ति तु | रोगिणः ॥ ९ ॥
त्रिदोषरोग में तीनों दोषोंके चिह्न नेत्रोंमें होते हैं. दोपके कुपित होनेसे दो दोषोंके चिह्न होते हैं, और जो त्रिदोष गेगसे व्याकुल होय उसके नेत्र स्वाधीन नहीं रहते, कभी नेत्रोंको खोले और कभी मूंदे अथवा निरन्तर मूंदेही रक्खे अथवा निरन्तर खुलेही रक्खे, जिसकी काली पुतली लुप्त होजाय अथवा पुतली भ्रमण करे, धुआंसा दिखलाई दे तथा जिसके विकृत तारे हो जायँ, अनेक प्रकारके वर्ण विकृत अनेक चेष्टा करे ऐसे नेत्र रोगीकी आसन्न मृत्यु कहते हैं और जिसकी प्रसन्न दृष्टि होय तथा नेत्र अपनी प्रकृतिमें स्थिर होंय ऐसे नेत्ररोगी के रोगकी शीघ्र शान्ति कहते हैं ।। ५-९ ॥
इति नेत्रपरीक्षा |
मुखपरीक्षा |
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वातको मुखं रूक्षं स्तब्धं वकं गतप्रभम् । पित्तकोपे भवेद्रक्तं पीतं वा पतितम् ॥ १ कफकोपे गुरु स्निग्धं भवेच्छून मिवाननम् । त्रिलक्षणं त्रिदोषे स्याद्विचिह्नं च द्विदोषके ॥ २ ॥ वातके कोपसे मुख सुखा स्तब्ध और टेढा होता है, पित्तके कोपसे रोगीका मुख लाल पीला और तप्त होता है कफसे कोपसे मुख भारी चिकना सूजन युक्त होता है और त्रिदोष के कोपसे तीनों दोषके लक्षण होते हैं और द्विदोष के कोप से दोनों दोषके लक्षण होते हैं ॥ १ ॥ २ ॥
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