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प्रथमः ] भाषाटीकासहितः। स्निग्धं सुरूक्षकं श्यामं मूत्रं वातविकारजम् । पीतबुबुदसंयुक्तं विकारः स्यात्तु पित्तजः ॥ १३॥ मूत्रं श्लेष्मणि जायेत समं पल्लवारिणा । सिद्धार्थतैलसदृशं मूत्रं वै पित्तमारुतैः ॥१४॥ कृष्णं सबुद्बुद मूत्र सन्निपातविकारजम् । पानीयेन समं मूत्रं परिपाकहितं भवेत् ॥ १५ ॥ श्वेतधारा महाधाग पीतधारास्तथा ज्वराः। रक्तधारा महारोगी कृष्णा च मरणान्तिका ॥१६॥ अजामूत्रमिवाजीणे ज्वर कुंकुमपिञ्जरम् । समधातोः पुनःकूपजलतुल्यं प्रजायते ॥ १७॥ वातके विकारसे मूत्र चिकना, रूखा,काला होता है. पीला बबूले के समान पित्तके विकारसे होता है और करके विकारसे मूत्र तलैयाके जलके समान होता है और वातपित्तके विक रसे मूत्र सरसों के तेलके सदृश होता है, सनिपातके विकारसे काला और बबुलेदार होता है परिपाकसमय मूत्र स्वच्छ जलके समान होता है सफेद धारा, महाधारा, पीलीधारा ये ज्वरवालेकी होती है. महारोगीकी लालधारा होती है और आसन्नमृत्युवाले रोगोंके मूत्रकी धारा काली होती है. अजीर्ण वाले रोगीके मत्रमें बकोके मूत्रके समान गंध आती है, ज्वरवालेका मूत्र केशरके समान पीला होता है, समान धातु वालेका मत्र कुआँके जल समान होता है ॥ १३-१७॥
इति मूत्रपरीक्षा ॥
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