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यांगचिन्तामणिः । [ पाकाधिकारः
मानोति तदा साध्यं वदेत्सुधीः । बिन्दुरूपेण मध्यस्थमसाध्यं तु तलस्थितम् ॥ ९ ॥
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प्रातःकालमें जो रोगीका मूत्र लिया उसे धूपमें रखकर उसमें वैद्य तेलकी बूंद डाले । यदि तेलकी बूंद प्रकाशित रहे तो रोगीका कल्याण जाने और वह बूंद तेलकी बिन्दुरूपही रहे तो असाध्य जानना अथवा वह तेलकी बूंद मूत्रमें बैठजाय अथवा चक्कर खाया करै तो उस मनुष्यकी देहको अरिष्ट (राग) जानना, प्रातःकाल स्वच्छ पात्र में रोगीका मूत्र लेकर उसमें तृणसे तेलकी बुन्द डालकर विचार करे | यदि वह बून्द प्रकाशित रहे तो उस रोगीको साध्य कहना और वह तेलकी बूँद सूत्र में नीचे बैठजाय तो असाध्य जानना ।। ६-९ ॥ बिन्दुमति सर्वत्र मध्ये व छिद्रसंयुतः ।
खड्ग दण्डधनुस्तुल्यस्तदा रोगी विनश्यति ॥ १० ॥ तडागहंसपद्मभच्छत्रचामरतोरणैः । तुल्यस्तदा चिरायुः स्यादबुदबुदं देवकोपतः ॥ ११॥ पूर्व पश्चिमवायव्य नैनोत्तरतः शुभः । आग्नेयदक्षिणेशाने विस्तृतो न शुभप्रदः ॥ १२ ॥ तेलकी बूंद मूत्रमें चक्कर खाय अथवा उसके बीचमें छिद्र होजाय तथा खड्ग (तलवार) दण्ड और धनुषके आकार होजाय तो रोगीकी मृत्यु होय. तालाच, हंस, कमल, हाथी, छत्र, चामर, तोरण इनके आकार तेलकी बूंद हो जाय तो चिरायु ( दीर्घायु) कहनी । उस मूत्र
बबूला उठे तो रोगीको देवदोष जानना और वह तेलकी बूँद, पूर्व, पश्चिम, वायव्य, नैर्ऋत्य और उत्तर इन दिशाओंमें फैले तो शुभ है और अग्निकोण, दक्षिण, ईशाणकोण इन दिशाओं में फैले तो अशुभ है. यह परीक्षा समान भूमिमें करनी चाहिये ॥ १०-१२ ॥
Aho ! Shrutgyanam