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योगचिन्तामणिः। पाकाधिकारःस्निग्धा रसवती प्रोक्ता रक्ते मूर्छा भिघातिनी। भाविरोगावबोधाय स्वस्थनाडीपरीक्षणम् ॥ १६॥ आदौ च वहते पित्तं मध्ये श्लेष्मा प्रकीर्तितः । अन्ते प्रभञ्जनः प्रोक्तस्त्रिधा नाडीपरीक्षणम् ॥१७॥ यथा वीणागता तन्त्रीः सर्वाना गान्प्रकाशयेत् । तथा हस्तगता नाडी विभक्ताऽऽमयसंचयम् ॥१८॥
अंगूठे के निकट जो दोषविशेष करके नाडी चले है वह सर्व अंगव्यापिनी है, ऐसा पूर्वाचयोंने कहा है, वात के कोपसे नाडी टेढ़ी गतिसे गमन करती है, पित्तके कोपसे चपल गतिसं चलती है और कफके कोपसे स्थिर अर्थात् मन्द गमन करती है और सब दोषोंके कोपसे नाडी सर्वचिह्नयुक्त चलती है. रसवती नाडी चिकनी होती है, रुधिरकी नाडी मूर्छित चलती है, होनहार रोगके जानने के निमित्त स्वस्थ मनुष्यकी नाडी परीक्षा करनी चाहिये, प्रथम पित्तकी नाडी, मध्यमें कफकी और अन्तमें वातकी नाडी चलती है, जैसे वीणाके तार सम्पूर्णरागोंको अलग अलग प्रकाश करते हैं इसी प्रकार हाथकी नाडी सकल रोगोंकी सूचना करती है ॥ ११--१८ ॥
इति नाडीपरीक्षा।
मूत्रपरीक्षा। रात्रेश्चतुर्थयामस्य घटिकानां चतुष्टये । समु. त्थाप्य परीक्षेत मूत्रं वैद्यस्तु रोगिणः ॥ १॥ पूर्वधारां परित्यज्य गृहीत्वा काचभाजने । धार• येत्कांस्यपात्रे वा कृत्वा मूत्रं पटावृतम् ॥ २ ॥
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