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प्रथमः ]
भाषाटीकासहितः ।
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जाननी । जो नाडी अपने स्थानको छोडदेवे उसे प्राणनाशिनी जाननी और जो नाडी ठहर २ के चले उसेभी प्राणघातिनी जाननी चाहिये । जो नाडी अत्यन्त क्षीण शीतल होय उसेभी निश्चय नाश करनेवाली जाननी ॥ ९-१० ॥
ज्वरकोपेन धमनी सोष्णा वेगवती भवेत् । कामात्धाद्वेग हा क्षीणा चिन्ताभयप्लुता ॥ ११ ॥ मन्दाग्नेः क्षीणधातोश्च नाडी मन्दतरा भवेत् । अपूर्णा भवे सोष्णा गुर्वी सामा गरीयसी ॥ १२ ॥ लघ्वी वहति दीप्तास्तथा वेगवती मता । सुखिनः सा स्थिरा ज्ञेया तथाबलवती मता ॥ चपला क्षुधितस्यापि तृप्तस्य वहति स्थिरा ॥ १३ ॥
Garh कोपसे नाडी गरम और वेगवती होती है, काम और क्रोधके वेग से भी नाडी जल्दी चलती है, चिन्तावान् और भयभीत मनुष्यकी नाडी क्षीण होती है तथा मन्दाग्नि और क्षीणधातुवाले मनुष्यकी नाडी मन्दतर चलती है, रुधिरके कोपकी गरम और भारी होती है, आमकी नाडी भारी होती है, दीप्त अग्निवालेकी नाडी हलकी और वेगवती होती है, सुखी मनुष्यकी नाडी स्थिर और बलवती होती हैं, भूखे मनुष्यकी नाडी चपल होती है और तृप्तकी नाडी स्थिर होती है | ११-१३ ॥
अङ्गुष्ठमूलसंस्था दोषविशेषेण वहति या नाडी । बहुधा सा सर्वाङ्गपूर्वाचार्यैः समाख्याता ॥ १४ ॥ वाताकगता नाडी चपला पित्तवाहिनी । स्थिरा श्लेष्मवती प्रोक्ता सर्वलिंगेषु सर्वगा ॥ १५ ॥
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