________________
प्रथमः
वराङ्ग चरितम्
यस्याज्ञया स्वपथमुत्क्रमितु न शेकुर्वर्णाश्रमा जनपदे सकले पुरे वा। पाषण्डिनः स्वसमयोपविनीतमार्गाः सोऽतीव बालबुधवृद्धतमान्बभार ।। ५१॥ यस्याहितं प्रकुरुते मनसापि कश्चित् किंचित्क्वचित्पुरुषमर्थमनर्थक' वा। क्षुत्क्षीणभुग्ननयनोदरवक्त्रदण्डः स्थातु हि तस्य विषये न शशाक मत्यंः ॥५२॥ युद्धेषु भिन्नकटवारणगण्डलेखासंप्रस्रुतैः शमितधूलिषु दानतोयैः । वाक्येषु बृहितमदान्प्रतियोद्ध कामान् यः सद्य एव हि रिपून्विमदोचकार ॥ ५३ ॥ चेतांसि बद्धदृढवैरवतां नराणामभ्यन्तरप्रकृतिकस्य जनस्य वापि । स्वाभाविकैविनयजैश्चरितैरुवारैर्योऽरज्जयद् भृशमथ स्वगुणैनरेन्द्रः॥ ५४॥
सर्ग:
से समुद्रको और न्यायानुसार शासन करनेकी शक्ति द्वारा विश्व व्यवस्थापक यमराजको भी पछाड़ दिया था॥५०॥
यह उसके प्रचण्ड शासनका ही प्रताप था कि लोग राजधानी या राज्यके किसी कोनेमें भी चारों वर्षों ( जीविकाके ) म और चारों आश्रमों ( संघों ) की मर्यादाओंको लाँघनेका साहस न करते थे । सबहो सम्प्रदायोंके अनुयायी अपने शास्त्रोंके अनुसार
आचरण करते थे। इस प्रकार वह बालकों या बूढ़ों, अज्ञ या प्रकाण्ड पण्डितों आदि सबसे ही अपने-अपने कर्तव्योंका पालन तत्परतासे करता था ॥५१॥
यदि कोई पुरुष केवल मनमें ही उसका बुरा करनेका विचार डाला था, या कहीं कोई विरुद्ध बात या काम करता था, तो चाहे उससे राजाका बुरा हो या न हो, तो भी वह उसके राज्यमें एक क्षण भी ठहरनेका साहस न करता था। वह इतना भयभीत हो जाता था कि अपनेको जंगलों में छिपाता फिरता था जहाँपर भूख प्यासकी वेदनासे उसका पेट, गाल और आँखें फंस जाती थी तथा दुर्बलता और धान्तिसे उसका पृष्ठ दण्ड झुक जाता था ।। ५२॥
इसके युद्धोंमें पैदल सैनिक, और घोड़ों की टापोंकी मारसे जो धूलके बादल छा जाते थे, वे मदोन्मत हाथियोंके उन्नत गण्डस्थलोंसे लगातार बहती हुई दान ( मदजल ) को धाराओंसे बैठ जाते थे , ऐसे भीषण युद्धोंमें शत्रकी तरफसे लड़ते हुये अभिमानी योद्धाओंको और शास्त्रार्थों में अपनी पण्डिताईके मदमें चकनाचूर प्रतिवादी विद्वानोंको (अर्थदानी) वह एकदम हो मसल देता था ॥ ५३ ॥
अपनी स्वाभाविक विनभ्रतासे उत्पन्न उदार आचरणों तथा महान गुणोंके द्वारा वह उन लोगोंके भी मन्त्रमुग्ध कर लेता था, जिन्होंने उसके विरुद्ध वैरकी दृढ़ गाँठ बाँध ली थी, या जिनको रुचि बाह्य संसारसे ऊबकर अन्तर्मुखी हो गयी थी फलतः जो सदा ज्ञान ध्यानमें ही लगे रहते थे और राग-द्वेष आदि मोहजन्य भावोंसे पर थे ।। ५४ ।। १. [ °परुष°]।
। [१४]
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org