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और अगले ही क्षण मानो विश्व-विख्यात कलाकार पिकासो की घनत्वदर्शी कला के चित्रलोक में से गजरा । जहाँ सामने के एक ही मर्त स्वरूप में से अमूर्त सौन्दर्य की जाने कितनी ही आकृतियाँ और आयाम खुलते चले जाते हैं। प्रतिमासन में अवस्थित यह दिगम्बर योगी आखिर कोई मनुष्य ही तो है । फिर भी एक सुदृढ़ चतुष्कोण में जड़ित यह मानवाकृति कितनी निस्पन्द और निश्चल है । मन, वचन, काय की सारी हलनचलन उसमें इस क्षण स्तंभित है । आँखों की दृष्टि अपलक, अनिमेष, एकाग्र होकर भी सर्व पर व्याप्त है; लेकिन आश्चर्य कि मेरे हृदय में उठ रही लौ के उत्तर में, वह दृष्टि मानो एकोन्मुख भाव से मुझे ही देख रही है। • ‘मेरे अन्तर में जिनेश्वरों द्वारा कथित सत्ता का स्वरूप प्रस्फुरित हुआ : ‘उत्पादव्ययध्रौव्य युक्तं सत्वं' । इस मानव-मूर्ति में ध्रुव के भीतर उत्पाद और व्यय के निरन्तर परिणमन की तरंगें प्रत्यक्ष अनुभूयमान हुई। चिर दिन से 'वातरशना' का जो विज़न मेरी चेतना में झलक रहा था, आज उसे प्रत्यक्ष
आँखों-आगे देखा । मन्दिर की वेदी पर सवेरे श्री भगवान् की जिस जीवन्त प्रेममूर्ति के दर्शन हुए थे, उसीके 'यै शान्तिरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं . . .'--सौन्दर्य-परमाणुओं को यहाँ एक जीवित मनुष्य में आकार लेने की प्रक्रिया में देखा । . .
• अच्छा, तो यही हैं मुनिश्री विद्यानन्द स्वामी, जिनकी अधुनातन कही जाती वागीश्वरी की ख्याति, जैन-जगत् से चिर निर्वासित मेरे कवि के कानों तक भी पहुंची थी। शोलापुर की बालयोगिनी पं. सुमतिबाईजी ने इन्हीं के नाम एक परिचय-पत्र देते हुए मुझसे कहा था : 'आज के पूरे जैन संसार में एक वही तो है, जो तुम्हारा मूल्य आँक सकता है, जो तुम्हारी हर जिज्ञासा और अभीप्सा का उत्तर दे सकता है ।' सुमति दीदी की वह वत्सल वाणी उस दिन मेरे हृदय को छू गयी थी, फिर भी मेरे अपने सन्देह, अपनी जगह पर थे। पर यहाँ आज एक दृष्टिपात मात्र में मेरे सन्देहों के वे सारे जाले सिमट गये। ..
• • ‘प्रवचन के उपरान्त मुनिश्री, श्रीमहावीर-मूर्ति के प्राकट्य-तीर्थ, सुरम्य पादुकाउद्यान में, एक शिलासन पर आ बिराजमान हुए । उनके सन्मुख ही लॉन में उपस्थित कुछ श्रावक-मंडल के बीच मैं भी जा बैठा । अपराह्न की कोमल ललौंही धूप से प्रभाविल उस सौन्दर्य-मूर्ति को देखकर जाने कैसे आत्मीयता-बोध से मैं तरल हो आया । मलयागिरि चन्दन-सी काया । कमल-सी कोमल, लता-सी लचीली, फिर भी चट्टान की तरह अभेद्य और अविचल । उस तपःपूत ताम्र देह में से पवित्रता की अगुरु-कपूरी गन्ध बहती महसूस हई । ऐसी सघन, कि अपने संस्पर्श से वह मेरे भीतर के चिद्धन को पुलकाकुल किये दे रही थी।
मैंने मौका देखकर, आगे आ प्रणाम किया और सुमति दीदी का पत्र मुनिश्री के सम्मुख प्रस्तुत किया । पलक मारते में उस पर निगाह डालकर, पत्र उन्होंने चुपचाप
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तीर्थंकर / अप्रैल १९७४
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