Book Title: Tirthankar 1974 04
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 193
________________ माध्यम थी उसे उसने अपना लिया; और इतिहास साक्षी है, जैनधर्म की इससे कोई हानि नहीं हुई है। निष्कर्ष यह कि सम्प्रेषण के माध्यम की सहजता और सार्वजनीनता के लिए वर्तमान में किसी एक सामान्य भाषा को अपनाया जाना बहुत जरूरी है । मतभेदों में सामंजस्य एवं शालीनता के लिए अनेकान्तवाद का विस्तार किया जा सकता है, क्योंकि बिना वैचारिक उदारता को अपनाये अहिंसा और अपरिग्रह आदि की सुरक्षा नहीं है । गहराई में खोजा जाए तो वर्तमान युग में जैनधर्म के अधिकांश सिद्धान्तों की व्यापकता दृष्टिगोचर होती है । ज्ञान-विज्ञान और समाज-विकास के क्षेत्र में जैनधर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । आधुनिक विज्ञान ने जो हमें निष्कर्ष दिये हैंउनसे जैनधर्म के तत्त्वज्ञान की अनेक बातें प्रामाणित होती जा रही है । वैज्ञानिक अध्ययन के क्षेत्र में द्रव्य 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' की परिभाषा स्वीकार हो चुकी है । जैनधर्म की यह प्रमुख विशेषता है कि उसने भेद - विज्ञान द्वारा जड़-चेतन को सम्पूर्णता से जाना है। आज का विज्ञान भी सूक्ष्मता की ओर निरन्तर बढ़ता हुआ सम्पूर्ण को जानने की अभीप्सा रखता है । वर्तमान युग में अत्यधिक आधुनिकता का जोर है । कुछ ही समय बाद वस्तुएँ, रहन-सहन के तरीके, साधन, उनके सम्बन्ध में जानकारी पुरानी पड़ जाती है । उसे भुला दिया जाता है । नित नये के साथ मानव फिर जुड़ जाता है । फिर भी कुछ ऐसा है, जिसे हमेशा से स्वीकार कर चला जाता रहा है । यह सब स्थिति और कुछ नहीं, जैनधर्म द्वारा स्वीकृत जगत् की वस्तुस्थिति का समर्थन है । वस्तुओं के स्वरूप बदलते रहते हैं, अतः अतीत की पर्यायों को छोड़ना, नयी पर्यायों के साथ जुड़ना यह आधुनिकता जैनधर्म के चिन्तन की ही फलश्रुति है । नित नयी क्रान्तियाँ प्रगतिशीलता, फैशन आदि वस्तु की 'उत्पादन' शक्ति की स्वाभाविक परिणति मात्र हैं। कला एवं साहित्य के क्षेत्र में अमूर्तता एवं प्रतीकों की ओर झुकाव वस्तु की पर्यायों को भूलकर शाश्वत सत्य को पकड़ने का प्रयत्न है । वस्तुस्थिति में जीने का आग्रह 'यथार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' के अर्थ का ही विस्तार है । आज के बदलते सन्दर्भों में स्वतन्त्रता का मूल्य तीव्रता से उभरा है । समाज की हर इकाई अपना स्वतन्त्र अस्तित्व चाहती है । कोई भी व्यक्ति अपने अधिकार एवं कर्तव्य में किसी का हस्तक्षेप नहीं चाहता । जन - तान्त्रिक शासनों का विकास इसी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के आधार पर हुआ है । जैनधर्म ने स्वतन्त्रता के इस सत्य को बहुत पहले घोषित कर दिया था । वह न केवल व्यक्ति को अपितु प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को स्वतन्त्र मानता है : इसलिए उसकी मान्यता है कि व्यक्ति स्वयं अपने स्वरूप में रहे और दूसरों को उनके स्वरूप में रहने दे । यही सच्चा लोकतन्त्र है । एक दूसरे के स्वरूपों में जहाँ हस्तक्षेप हुआ, वहीं बलात्कार प्रारम्भ हो जाता है, जिससे दुःख के सिवाय और कुछ नहीं मिलता । १९४ Jain Education International For Personal & Private Use Only तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ www.jainelibrary.org

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