________________
५. जिनसेन : ये आदिपुराण के कर्ता श्रावकधर्म के अनुयायी एवं पंचस्तूपान्वय के जिनसेन से भिन्न हैं। ये कीर्तिषेण के शिष्य थे।
जिनसेन का "हरिवंश" इतिहास-प्रधान चरित-काव्य-श्रेणी का ग्रंथ है। इस ग्रंथ की रचना वर्धमानपुर (वर्तमान बदनावर, जिला धार) में की गयी थी। दिगम्बर कथाकोश सम्प्रदाय के कथा-संग्रहों में इसका तीसरा स्थान है।
६. हरिषेण : पुन्नाट संघ के अनुयायियों में एक दूसरे आचार्य हरिषेण हुए। इनकी गुरु-परम्परा मौनी भट्टारक श्री हरिषेण भारतसेन, हरिषेण इस प्रकार बैठती है। अपने कथा-कोश की रचना इन्होंने वर्धमानपुर या बढ़वाण (बदनावर) में विनायकपाल राजा के राज्यकाल में की थी। विनायकपाल प्रतिहार वंश का राजा था, जिसकी राजधानी कन्नौज थी। इसका ९८८ वि. सं. का एक दानपात्र मिला है। इसके एक वर्ष पश्चात् अर्थात् वि. सं. ९८९ शक सं. ८५३ में कथाकोश की रचना हुई। हरिषेण का कथाकोश साढ़े बारह हजार श्लोक परिमाण का बृहद् ग्रंथ है।
७. मानतुंग : इनके जीवन के सम्बन्ध में अनेक विरोधी मत हैं । इनका समय ७ वीं या ८ वीं सदी के लगभग माना जाता है। इन्होंने मयूर और बाण के समान स्तोत्र-काव्य का प्रणयन किया। इनके भक्तामर स्तोत्र का श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदाय वाले समान रूप से आदर करते हैं । कवि की यह रचना इतनी लोकप्रिय रही कि इसके प्रत्येक अन्तिम चरण को लेकर समस्यापूात्मक स्तोत्र काव्य लिखे जाते रहे। इस स्तोत्र की कई समस्या-पूर्तियाँ उपलब्ध हैं।
८. आचार्य देवसेन : माघ सुदि १० वि. सं. ९९० को धारा में निवास करते हुए पार्श्वनाथ के मंदिर में “दर्शनसार” नामक ग्रंथ समाप्त किया। इन्होंने "आराधनासार" और "तत्वसार" नामक ग्रंथ भी लिखे हैं। “आलापपद्धति", "नयचक्र" ये सब रचनाएँ आपने धारा में ही लिखीं अथवा अन्यत्र यह रचनाओं पर से ज्ञात नहीं होता है ।
९. आचार्य महासेन : ये लाड़ बागड़ संघ के पूर्णचन्द्र थे। आचार्य जयसेन के प्रशिष्य और गुणाकरसेन सूरि के शिष्य थे। इन्होंने ११ वीं शताब्दी के मध्य भाग में "प्रद्युम्न-चरित' की रचना की। ये मुंज के दरबार में थे तथा मुंज द्वारा पूजित थे। न तो इनकी कृति में ही रचना-काल दिया हुआ है और न ही अन्य रचनाओं की जानकारी मिलती है।
१०. अमितगति : ये माथुर संघ के आचार्य और माधवसेन सूरि के शिष्य थे। वाक्पतिराज मुंज की सभा के रत्न थे। विविध विषयों पर आपके द्वारा लिखी गयीं रचनाएँ उपलब्ध हैं १. सुभाषित रत्न संदोह की रचना वि. सं. ९९४ में हुई। इसमें
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
२१९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org