________________
विद्वानों ने इस भाषा में लिखने का साहस किया, और महाकवि सूरदास, मीरा एवं तुलसीदास जैसे सन्त कवियों ने इस भाषा में भक्ति-साहित्य को निबद्ध करके इसे पंडितों के कोप से बचाया।
जैन विद्वानों की हिन्दी-रचनाएँ आज सैकड़ों-हजारों की संख्या में उपलब्ध हैं लेकिन दुःख की बात तो यह है कि अभी तक उनका सांगोपांग सर्वेक्षण नहीं हो सका है और न ही कोई प्रामाणिक इतिहास ही लिखा जा सका है । इधर राजस्थान के जैन शास्त्र-भण्डारों की ग्रंथ-सूचियों के पाँच भाग जब से प्रकाशित हए हैं, हिन्दी की सैकड़ों रचनाएँ प्रकाश में आयी हैं और कई शोधार्थियों का ध्यान भी उधर गया है।
जबसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा प्राकृत भाषा पर प्रतिवर्ष सेमिनार आयोजित करने के लिए अनुदान दिया. जाने लगा है तब से और भी अधिक विद्वानों का ध्यान जैन साहित्य पर शोध-कार्य करने की ओर गया है। प्राकृत भाषा पर अब तक कोल्हापुर, बम्बई, पूना, गया, अहमदाबाद एवं उदयपुर में स्थानीय विश्वविद्यालयों की ओर से सेमीनार आयोजित हो चुके हैं। लेखक को भी प्रायः इन सभी सेमिनारों में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ है । अभी उदयपुर विश्वविद्यालय में 'भारतीय संस्कृति के विकास में जैनाचार्यों का योगदान' विषय पर एक अत्यधिक उच्चस्तरीय सेमिनार आयोजित हुआ था, जिसमें जैन एवं जैनेतर विद्वानों ने मुक्त कण्ठ से जैन-साहित्य के योगदान पर निबन्ध ही नहीं पढ़े अपितु उन पर गहन परिचर्चा भी की ।
0
वस्तुतः भारतीय संस्कृति के समग्र अध्ययन के लिए जैन ग्रंथों की सामग्री उपयोगी ही नहीं, अनिवार्य भी है । जैन ग्रंथों का अध्ययन तथा जैन परम्पराओं का पूर्ण परिचय प्राप्त किए बिना हिन्दी साहित्य का सच्चा इतिहास भी नहीं लिखा जा सकता।
-डा. शिवमंगलसिंह 'सुमन'
२०२
तीर्थकर | अप्रैल १९७४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org