Book Title: Tirthankar 1974 04
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 204
________________ देखकर उसमें गुण प्रतीत हो तो उसकी प्रशंसा करते हैं, सेवा करते हैं, आदर करते हैं । इसी प्रकार कर्नाटक- साहित्य की स्थिति है। कर्नाटक - साहित्य की प्राचीनता ही नहीं, महत्ता भी उसमें अपने-आपमें है, इसलिए अन्य साहित्यकारों ने जैन कर्नाटक साहित्य की भी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है । राजाश्रय मिला इन कवियों ने अपनी प्रतिभा - शक्ति का यथेष्ट उपयोग उस समय किया, उसका एक कारण यह भी है कि उन्हें अपने समय में राजाश्रय मिला था, राज्य शासन न करने वाले भी गुण ग्राहक थे, अपने आस्थान में ऐसे अनेक कवियों को स्थान देने में वे गौरव समझते थे । राष्ट्रकूट, गंग, पल्लव, चालुक्य, होयसल आदि अनेक राज्यों के शासनकाल में कर्नाटक के इन कवियों ने उनसे प्रोत्साहन प्राप्त किया था, इतना ही नहीं राजाओं को राज्य शासन के कार्य में भी इन कवियों से मंत्रणा मिलती थी । राष्ट्रकूट शासक नृपतुंग का समय ९ वीं शताब्दी का है। उसने कन्नड़ में 'कविराज मार्ग' की रचना की है। अपनी रचना में नृपतुंग ने अनेक पूर्वकवियों एवं उनकी कृतियों का उल्लेख किया है । इससे ज्ञात होता है कि ९ वीं शती से पहिले भी यह साहित्य अत्यन्त उन्नतावस्था में था, इससे पहिले के सभी ग्रन्थ प्रायः हळे कन्नड (पुराना कन्नड) में बनाये जाते थे । 'कविराज मार्ग' में भी ग्रंथकार ने कुछ हळे कन्नड ग्रंथों का उल्लेख किया है । अनेक प्राचीन कवियों का भी उल्लेख इसमें है । नृपतुंग ने अपने ग्रंथ में श्रीविजय, कवि परमेश्वर, पंडित चंद्र, लोकपाल आदि कवियों का स्मरण किया है । महाकवि पंप ने भी पूज्यपाद समंतभद्र का अपने ग्रंथों में स्मरण किया है। समंतभद्र और पूज्यपाद का समय तीसरी - पांचवीं शताब्दियाँ मानी जाती हैं; अर्थात् वे बहुत प्राचीन आचार्य हैं । पूज्यपाद और समंतभद्र के ग्रंथों की टीका भी हळे कन्नड में है। इससे भी इस भाषा की प्राचीनता सिद्ध हो सकती है । कविपरमेष्ठी की कृति कर्नाटक में ही होनी चाहिये । लगता है कविपरमेष्ठी ने त्रिषष्टिशलाका पुरुषों के चरित्र का चित्रण कन्नड भाषा में किया होगा, इसलिए बाद के आचार्यों ने उस कवि का नाम आदर के साथ लिया है । भगवज्जिनसेन आचार्य ने भी उक्त ग्रंथ से लाभ उठाया होगा इसीलिए वे लिखते हैं कि - मुनिश्री विद्यानन्द - विशेषांक Jain Education International For Personal & Private Use Only २०५ www.jainelibrary.org

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