Book Title: Tirthankar 1974 04
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 202
________________ जैनधर्म के विकास में कर्नाटक - साहित्य का योग महर्षि विद्यानन्द मुनि इसी पुण्यभूमि के हैं; यद्यपि सर्वसंग परित्याग के बाद प्रान्त, देश, जाति की विवक्षा नहीं रहती है तथापि कर्नाटक राज्य को ऐसी देन का अभिमान तो हो ही सकता है । वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री जैन साहित्य की समृद्धि में कर्नाटक प्रांत और कर्नाटक साहित्य ने बहुत योगदान दिया है; स्थापत्य, वास्तु, चित्र कलाओं एवं कलापूर्ण धर्मायतनों के लिए यह प्रांत प्रसिद्ध है । आज भी श्रवणबेलगोला का गोमटेश्वर हळेबीड का शांतिनाथ, मूडबिद्री के सहस्रस्तंभ मंदिर, रत्नों की अनर्घ्य प्रतिमाएँ, बेवूर का चेन्नकेशव देवालय आदि को देखकर लोग दंग रह जाते हैं । कला का यह विस्मयपूर्ण दर्शन जगत्-भर को आकर्षित करता है । बेलगाम की कमल बस्ति, वेणूर व कार्कल की बाहुबलि मूर्ति, हुमच पद्मावती का अतिशय, बारंग का जल मंदिर, आज भी यात्रा के स्थान हुए हैं। 'षड्खंडागम' सदृश महान् सिद्धान्त-ग्रन्थ के संरक्षण का श्रेय एवं आज के जिज्ञासु बंधुओं को स्वाध्याय के लिए उपलब्ध करने की कीर्ति, इसी प्रान्त को है । अगर वहाँ के धर्म-बन्धुओं ने इसका यत्नपूर्वक जतन नहीं किया होता तो हम अपने बहुत प्राचीन करोड़ों की महत्त्वपूर्ण धरोहर से हाथ धो बैठते जैसे कि आज हमें गन्धहस्ति महाभाष्य का दर्शन दुर्लभ हो रहा है । कर्नाटक की विशेषता तीर्थंकरों का जन्म उत्तर भारत में हुआ है तो तीर्थंकरों की वाणी को विशद एवं सरल बनाकर लोककल्याण करने वाले आचार्यों का जन्म हुआ है दक्षिण भारत में । प्रायः कुंदकुंद, अकलंक, पूज्यपाद, समंतभद्र, विद्यानन्दि, नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती आदि सभी आचार्य दक्षिण भारत में ही हुए हैं। उनकी जन्मभूमि और कर्मभूमि दक्षिण भारत, विशेषत: कर्नाटक ही रही, इसलिए उत्तर भारत और दक्षिण भारत ने लोकप्रबुद्ध करने का यत्न समान रूप से किया । आधुनिक आचार्य शांतिसागर महाराज आदि मुनियों ने भी दक्षिण भारत में जन्म लेकर ही आज के युग मुनिश्री विद्यानन्द - विशेषांक Jain Education International For Personal & Private Use Only २०३ www.jainelibrary.org

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