Book Title: Tirthankar 1974 04
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 211
________________ आयुर्वेद, निमित्त, शकुन आदि सर्व विषयों पर कर्नाटक साहित्यकारों ने ग्रंथ - निर्माण किया है। सैकड़ों ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं हैं । इसमें हमारे समाज का प्रमाद ही कारण है; परंतु यह मात्र सत्य है कि हमारे पूर्वज विद्वान् सर्वविषयों में प्रभुत्व रखते थे। उनकी कृतियों से हम इस विषय का अनुमान कर सकते हैं । नागवर्म ने छंदोदधि नामक छन्द-ग्रन्थ की रचना की । अन्य नागवर्म ने कर्नाटक भाषा-भूषण नामक व्याकरण-ग्रंथ की रचना की । इसी प्रकार अलंकार विषयक काव्या वलोकन, कोष-विषयक वस्तु कोष भी अवलोकनीय है। भट्टाकलंक का शब्दानुशासन, केशिराज का मणिदर्पण, साव का रसरत्नाकर ( आयुर्वेद), देवोत्तम का नानार्थ रत्नाकर, शृंगार कवि का कर्नाटक संजीवन, आदि ग्रंथ विविध विषयों के उल्लेखनीय ग्रन्थ है । इसी प्रकार ज्योतिष, वैद्यक व सामुद्रिक विषयों के भी ग्रंथों की रचना इन कवियों द्वारा हुई है । शिवमारदेव का हस्त्यायुर्वेद, देवेंद्र मुनिका बातग्रह चिकित्सा, चंद्रराज का मदन - तिलक, जन्न का स्मर-तंत्र, चामुंडराय का सामुद्रिक शास्त्र, जयबंधु नंदन का सूप-शास्त्र, अर्हद्वास का शकन शास्त्र भी उल्लेखनीय हैं । इससे ज्ञात होता है कि साहित्य के सर्व अंगों को कर्नाटक के साहित्यकारों ने हृष्ट-पुष्ट किया है । इस तरह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि कर्नाटक - साहित्य, केवल प्राचीनता की दृष्टि से ही नहीं, महत्ता की दृष्टि से भी आज सर्वोत्तम है । आज जैन जैनेतर समाज इसीलिए जैन साहित्य को बहुत आदर से देखता है। विश्वविद्यालयों की उच्चतर कक्षाओं में विशेषतः जैन साहित्य के भाग को ही विद्यार्थियों को अध्ययन करने के लिए दिया जाता है । प्रायः सभी ग्रन्थकारों ने ग्रंथ के प्रमेय का प्रतिपादन करते हुए यत्र-तत्र जैन धर्म के अनुकरणीय तत्त्वों का उपदेश दिया है । सर्वसाधारण के जीवन में वे तत्त्व कितने हितकर हैं, इस बात को अच्छी तरह प्रतिबिंबित कराया है; अत: जैनधर्म के विकास में अन्य भाषा के साहित्यकारों का जैसा योगदान रहा है, उसी प्रकार कर्नाटक साहित्यकारों का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है । महर्षि विद्यानन्द मुनि इसी पुण्य भूमि के हैं । यद्यपि सर्वसंग परित्याग करने के बाद प्रान्त, देश, जाति की विवक्षा नहीं रहती है, तथापि कर्नाटक प्रान्त को ऐसी देन का स्वाभिमान तो हो ही सकता है । २१२ Jain Education International जो दे व्यर्थ को अर्थ वहीं सिद्ध, वही समर्थ - क. ला. सेठिया For Personal & Private Use Only तीर्थंकर / अप्रैल १९७४ www.jainelibrary.org

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