Book Title: Tirthankar 1974 04
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 192
________________ विस्तार ही अहंकार और ईर्ष्या के अस्तित्व की जड़ें हिला सकता है, जो हिंसा के मूल कारण हैं। जैनधर्म में इसीलिए 'स्व' को जानने पर इतना बल दिया गया है क्योंकि आत्मज्ञान का विस्तार होने पर अपनी ही हिंसा और अपना ही अहित कौन करना चाहेगा? जैनधर्म की अहिंसा की भूमिका वर्तमान युग की अन्य समस्याओं का भी उपचार है। अपरिग्रह का सिद्धान्त इसी का विस्तार है, किन्तु अपरिग्रह को प्रायः गलत समझा गया है। अपरिग्रह का अर्थ गरीबी या साधनों का अभाव नहीं है। महावीर ने गरीबी को कभी स्वीकृति नहीं दी। वे प्रत्येक क्षेत्र में पूर्णता के पक्षधर थे। इस दृष्टि से अपरिग्रह का आज के समाजवाद से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस युग के समाजवाद का अर्थ है कि मझ से बड़ा कोई न हो । सब मेरे बराबर हो जाएं किसी भी सीमित साधनों और योग्यता वाले व्यक्ति अथवा देश को इस प्रकार की बराबरी पर लाना बड़ा मुश्किल है। महावीर का अपरिग्रही चिन्तन है-मुझसे छोटा कोई न हो; अर्थात् मेरे पास जो कुछ भी है वह सबके लिए है, परिवार, समाज व देश के लिए है। यह सोचना व्यावहारिक हो सकता है। इससे समानता की अनुभूति हो सकती है। अब केवल नारा बनकर अपरिग्रह नहीं रहेगा । वह व्यक्ति से प्रारम्भ होकर आगे बढ़ता है, जबकि समाजवाद व्यक्ति तक पहुँचता ही नहीं है। अपरिग्रह सम्पत्ति के उपभोग की सामान्य अनुभूति का नाम है, स्वामित्व का नहीं; अतः विश्व की भौतिकता उतनी भयावह नहीं है, उसका जिस ढंग से उपयोग हो रहा है, समस्याएँ उससे उत्पन्न हुई हैं। अपरिग्रह की भावना एक ओर जहाँ आपस की छीना-झपटी, संचय-वृत्ति आदि को नियंत्रित कर सकती है, वहीं दूसरी ओर भौतिकता से परे आध्यात्म को भी इससे बल मिलेगा। विश्व में जितने झगड़े अर्थ और भौतिकवाद को लेकर नहीं है, उतने आपसी विचारों की तनातनी के कारण हैं। हर व्यक्ति अपनी बात कहने की धुन में दूसरे की कुछ सुनना नहीं चाहता । पहले शास्त्रों की बातों को लेकर वाद-विवाद तथा आध्यात्मिक स्तर पर मतभेद होते थे; आज के व्यक्ति के पास इन बातों के लिए समय ही नहीं है। रिक्त हो गया है वह शास्त्रीय ज्ञान से; तथापि वैचारिक मतभेद हैं और उनकी दिशा बदल गयी है । अब सीमाविवाद पर झगड़े हैं, नारों की शब्दावली पर तनातनी है, लोकतन्त्र की परिभाषाओं पर गरमा-गरमी है। साहित्य के क्षेत्र में हर पढ़ने-लिखने वाला अपने मानदण्डों की स्थापनाओं में लगा हुआ है। भाषा के माध्यम को लेकर लोग खेमों में विभक्त हैं। ऐसी स्थिति में जैनधर्म, या किसी भी धर्म, की भूमिका क्या हो, कहना कठिन है; किन्तु जैनधर्म के इतिहास से एक बात अवश्य सीखी जा सकती है कि उसने कभी भाषा को धार्मिक बाना नहीं पहिनाया । जिस युग में जो भाषा सम्प्रेषण का मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक १९३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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