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बोधकथा
युद्ध-विराम उन दिनों गुजरात में दो महान् साहित्यिक व्यक्ति चमक रहे थे। एक थे कवीश्वर दलपतराय, और दूसरे थे नाटककार डाह्याभाई। दोनों पहिले गहरे मित्र थे, फिर दोनों एक दूसरे के गहरे शत्रु बन गये । दलपतराय की कविता में डाह्याभाई पर धूल फैकी जाती, और डाह्याभाई के नाटकों में दलपतराय की खिल्ली उड़ायी जाती। दोनों एक दूसरे को फूटी आँखों भी नहीं सुहाते थे। बात यहाँ तक बढ़ी कि अगर किसी समारोह में एक बुलाया जाता तो दूसरा वहाँ से नौ-दो ग्यारह होता। साहित्यिक समाज में वे छत्तीस के अंक-से प्रसिद्ध थे।
समय बीतता गया, और दोनों साहित्यिकों ने यौवन पार कर बुढ़ापे की ओर पैर बढ़ाये। नाटककार डाह्याभाई एक बार एक संत का प्रवचन सुन रहे थे। संत ने कहा, “बुढ़ापे में सब बैर-जहर उगल डालना चाहिये, और सुलह-प्रेम को अपनाना चाहिये। देखो, प्रकृति तुम्हारे केशों की कालिमा को हटाकर श्वेत या उज्ज्वलता लाती है, तुम्हें यह सिखाने को कि तुम भी अपने हृदय की कालिमा को निकाल कर उज्ज्वल बनो। खट्टा आम भी पकने पर खटास छोड़कर मधुरता ग्रहण करता है, नीम की कड़वी निबोरी भी पकने पर मीठी हो जाती है, फिर क्या मनुष्य इतना गया बीता है कि आयु पकने पर भी वह जीवन में मधुरता न ला सके ?" संत के इन वचनों ने डाह्याभाई के हृदय पर सीधी चोट की। वे तिलमिला उठे। अब वे बैर-विष उगलने को व्यग्र हो उठे।
_प्रवचन समाप्त होते ही वे सीधे अपने चिर-शत्रु कवीश्वर दलपतराय के घर पहुँचे, और उनके सामने सिर झुकाये खड़े हो गये। कवीश्वर दलपतराय आश्चर्य में पड़ गये कि वे स्वप्न देख रहे हैं या जाग रहे हैं। कवीश्वर उठे और डाह्याभाई को प्रेम से पकड़कर घर के अंदर ले गये। बैठने पर डाह्याभाई बोले-“युद्ध में एक पक्ष अगर श्वेत-केतु (सफेद झण्डा) दिखाता है, तो युद्ध रुक जाता है, और सन्धि हो जाती है, क्यों कवीश्वरजी ठीक है न ?"
"हाँ, नियम तो यही है।
तब नाटककार डाह्याभाई ने अपनी पगड़ी उतारकर अपने श्वेत-केश बताते हुए कहा कि “यह रहा श्वेत-केतु (सफेद झण्डा) । अब मैं तुमसे सुलह की याचना करता हूँ।" कवीश्वर ने इसका उत्तर उनसे लिपटकर आँसुओं की अजस्र धार से दिया । दोनों ओर से आँसू बहे, और उनमें उनकी चिर शत्रुता सदा-सर्वदा के लिए बह गयी।
-नेमीचन्द पटोरिया
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तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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