Book Title: Tirthankar 1974 04
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 187
________________ जैन आचार्यों ने राग को बन्ध का कारण कहा है, किन्तु वहीं, जहाँ वह 'पर' में किया गया हो । वीतराग परमात्मा 'पर' नहीं, 'स्व' आत्मा ही है और आत्म प्रेम का अर्थ है- आत्मसिद्धि, जिसे मोक्ष कहते हैं। शायद इसी कारण आचार्य पूज्यपाद ने राग को भक्ति कहा । वीतरागी के प्रति राग का यह भाव जैन भक्ति के रूप में निरन्तर प्रतिष्ठित बना रहा । भक्त कवियों ने उसी को अपना आधार माना । हिन्दी के जैन भक्ति - काव्य में यह रागात्मक भाव जिन अनेक मार्गों से प्रस्फुटित हुआ, उनमें दाम्पत्य रति प्रमुख है । दाम्पत्य रति का अर्थ है - पति-पत्नी का प्रेमभाव । पति-पत्नी में जैसा गहरा प्रेम सम्भव है, अन्यत्र नहीं । तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' में लिखा, "कामिहि नारि पिआरि जिमि, प्रिय लागहु मोहि राम । " शायद इसी कारण दाम्पत्य रति को रागात्मक भक्ति में शीर्ष स्थान दिया गया है । हिन्दी के जैन कवियों ने चेतन को पति और सुमति को पत्नी बनाया। पति के विरह में पत्नी बेचैन रहती है, वह सदैव पति - मिलन की आकांक्षा करती है। पतिपत्नी के प्रेम में जो मर्यादा और शालीनता होती है, जैन कवियों ने उसका पूर्ण निर्वाह 'दाम्पत्य रति' वाले रूपकों में किया है । कवि बनारसीदास की 'अध्यात्मपदपंक्ति', भैय्या भगवतीदास की 'शत अष्टोत्तरी', मुनि विनयचन्द्र की चूनड़ी, द्यानतराय, भूधरदास, जगराम और देवाब्रह्म के पदों में दाम्पत्य रति के अनेक दृष्टान्त हैं और उनमें मर्यादा का पूर्ण पालन किया गया है । हिन्दी के कतिपय भक्ति-काव्यों में दाम्पत्य रति छिछले प्रेम की द्योतक-भर बन कर रह गयी है । उनमें भक्ति कम और स्थूल सम्भोग का भाव अधिक है । भक्ति की ओट में वासना को उद्दीप्त करना किसी भी दशा में ठीक नहीं कहा जा सकता। जैन कवि और काव्य इससे बचे रहे । आध्यात्मिक विवाह भी रूपक काव्य हैं । इनमें मेरुनन्दन उपाध्याय का 'जिनोदय सूरि विवाहलउ', उपाध्याय जयसागर का 'नेमिनाथ विवाहलो' कुमुदचन्द्र का 'ऋषभ विवाहला' और अजयराज पाटणी का 'शिवरमणी का विवाह' इस दिशा की महत्त्वपूर्ण कड़ियाँ हैं । 'आध्यात्मिक विवाह' जैनों की मौलिक कृतियाँ हैं । निर्गुनिए संतों ने ऐसी रचनाएँ नहीं कीं । जैन कवियों ने आध्यात्मिक फागु भी अधिकाधिक रचे । चेतन अपनी सुमति आदि अनेक पत्नियों के साथ होली खेलता रहा है। कभीकभी पुरुष और नारी के जत्थों के मध्य भी होलियाँ खेली गयी हैं । वैसे तो होलियाँ सहस्रों जैन पदों में बिखरी हैं, किन्तु जैसी सरसता द्यानतराय, जगराम और रूपचन्द्र के काव्य में है, दूसरी जगह नहीं । चेतन की पत्नियों को चूनड़ी पहनने का चाव था। कबीर की बहुरिया ने भी 'चूनड़ी' पहनी है, किन्तु साधुकीति की चूनड़ी में संगीतात्मक लालित्य अधिक है । १८८ Jain Education International For Personal & Private Use Only तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ www.jainelibrary.org

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