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अर्थ है गुणातीत । गुण का अर्थ है--प्रकृति का विकार-सत्व, रज और तम । संसार इस विकार से संयुक्त है और ब्रह्म इससे रहित; किन्तु कबीरदास ने विकार-संयुक्त संसार के घट-घट में निर्गुण ब्रह्म का वास दिखा कर सिद्ध किया है कि 'गुण' 'निर्गुण' का और 'निर्गुण' 'गुण' का विरोधी नहीं है । उन्होंने 'निरगुन' में 'गुन' और 'गुन' में 'निरगुन' को ही सत्य माना, अवशिष्ट सब को धोखा कहा; अर्थात् कबीरदास ने सत्त्व, रज, तम से रहित होने के कारण ब्रह्म को निर्गुण और सत्त्व-रज-तम रूप विश्व के कण-कण में व्याप्त होने की दृष्टि से सगुण कहा। उनका ब्रह्म भीतर से बाहर और बाहर से भीतर तक व्याप्त था। वह अभाव रूप भी था और भाव रूप भी, निराकार भी था और साकार भी, द्वैत भी और अद्वैत भी। जैसे अनेकान्त में दो विरोधी पहल अपेक्षाकृत दृष्टि से निभ पाते हैं, वैसे कबीर के ब्रह्म में भी थे। वास्तविकता यह है कि कबीरदास को अनेकान्त और उसके पीछे छिपा सिद्धान्त न तो किसी ने समझाया और न उसके समझने से उनका कोई मतलब ही था। कबीर सिद्धान्तों के घेरे में बंधने वाले जीव नहीं थे। उन्होंने सदैव सुगन्धि को पसन्द किया, ऐसी सुगन्धि जो सर्वोत्तम थी। वह कहाँ से आ रही थी, किसकी थी, इसकी उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की।
अनेकान्त का यही स्वर अपभ्रंश के जैनदूहाकाव्य में पूर्ण रूप से वर्तमान हैं। कबीर ने जिस ब्रह्म को निर्गुण कहा, योगीन्दु के 'परमात्मप्रकाश' में उसे निष्कल संज्ञा से अभिहित किया गया था। निष्कल की परिभाषा बताते हुए टीकाकार ब्रह्मदेव ने 'पंचविधशरीररहितः' लिखा। महचन्द ने भी अपने 'पाहुड़दोहा' में निष्कल शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया है। शरीर-रहित का अर्थ है-निःशरीर, देह-रहित, अस्थूल, निराकार, अमूर्तिक और अलक्ष्य । प्रारम्भ में योगीन्दु ने इसी निष्कल को 'निरञ्जन' कह कर सम्बोधित किया है। उन्होंने लिखा है--"जिसके न वर्ण होता है, न गन्ध, न रस, न शब्द, न स्पर्श, न जन्म और न मरण, वह निरञ्जन कहलाता है। निरञ्जन का अधिकाधिक प्रयोग किया गया है। वैसे निष्कल के अनेक पर्यायवाची हैं। उनमें आत्मा, सिद्ध, जिन और शिव का स्थान-स्थान पर प्रयोग मिलता है। मुनि रामसिंह ने समूचे ‘पाहुड़दोहा' में केवल एक स्थान पर 'निर्गण' शब्द लिखा है। उन्होंने उसका अर्थ किया है--निर्लक्षण और निःसंग। वह निष्कल से मिलता-जलता है।
कबीर के निर्गुण में गुण और गुण में निर्गुण वाली बात अपभ्रंश के काव्यों में उपलब्ध होती है। योगीन्दु ने लिखा, “जसु अब्भंतरि जगु वसई, जग-अब्भंतरि जो जि ।” ऐसा ही मुनि रामसिंह का कथन है, “तिहुयणि दीसइ देउ, जिण जिणवर तिवणु एउ।" अर्थात् त्रिभुवन में जिनदेव दिखता है और जिनवर में यह त्रिभुवन । जिनवर में त्रिभुवन ठीक वैसे ही दिखता है, जैसे निर्मल जल में ताराओं का समूह प्रतिबिम्बित होता है।
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तीर्थंकर / अप्रैल १९७४
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