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एक दूसरे के प्रति आदर रखने और अनेकता के गर्भ में विद्यमान एकता की ओर दृष्टि करने में ही हमारा हित और बुद्धिमत्ता है ।
—नाथूलाल शास्त्री
मुनिश्री के मुखारविन्द से विश्वधर्म का जयघोष श्रवण कर और उनके लोकहितकारी अध्यात्मपूरित सार्वजनिक प्रवचन में सहस्रों की संख्या में उपस्थित विविध समाज की जनता को देखकर अनेक बन्धु यह प्रश्न करते हैं कि यह नवीन विश्वधर्म और उसका नारा मुनिश्री का चलाया हुआ है और मुनिश्री सर्वधर्मों (संप्रदायों) के मानने वाले हैं इस नाम से लोकानुरंजन का उनका क्या प्रयोजन है ? हमारे समक्ष भी ऐसी उत्कण्ठा और चर्चा प्रस्तुत की गयी है ।
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विश्वधर्म
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मन्त्रदाता ऋषि
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मानव हृदय को संस्कृत कर उसमें विद्यमान विकारों को दूर करने का प्रयत्न ही धर्म का उद्देश्य है । जीवमात्र सुख और शान्ति से रहे ; 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्' की भावना विकसित हो । अहिंसा और समन्वय की भावना से यह भूतल स्वर्गोपम दृष्टिगोचर हो । प्राणिमात्र संघर्ष से वचे, मत्स्यन्याय ( सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट) का आश्रय न ले, इस आदर्श को प्रस्थापित करने और 'जीओ और जीने दो' का संजीवन मंत्र प्रदान करने हेतु समय-समय पर युगपुरुषों का प्रादुर्भाव होता रहा है । इन आदर्शों और लक्ष्यों पर कुठाराघात करने वाले भी उन युगपुरुषों के शिष्य या अनुयायी ही हुए हैं जिन्होंने उनके उपदेशों के नाम पर बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी कर दीं और
तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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