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एवं दर्शन के संदर्भ में जब हम जैन- दर्शन एवं भगवान् महावीर की वाणी पर विचार करते हैं, तो पाते हैं कि जैन-दर्शन समाज के प्रत्येक मानव के लिए समान अधिकार जुटाता है । सामाजिक समता एवं एकता की दृष्टि से श्रमण- परम्परा का अप्रतिम महत्त्व है । इस परम्परा में मानव को मानव के रूप में देखा गया है; वर्णों, वादों, संप्रदायों आदि की चिगत्ती (लेबिल) चिपकाकर मानव-मानव को बाँटने वाले दर्शन के रूप में नहीं । मानव - महिमा का जितना जोरदार समर्थन जैनदर्शन में हुआ है वह अनुपम है ।
महावीर ने आत्मा की स्वतन्त्रता की प्रजातन्त्रात्मक उद्घोषणा की। उन्होंने कहा कि समस्त आत्माएँ स्वतन्त्र हैं, प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है । उसके गुण और पर्याय भी स्वतन्त्र हैं । विवक्षित किसी एक द्रव्य तथा उसके गुणों एवं पर्यायों का अन्य द्रव्य या उसके गुणों और पर्यायों के साथ किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है ।
इस दृष्टि से सब आत्माएँ स्वतन्त्र हैं, भिन्न-भिन्न हैं, पर वे एक-सी अवश्य है, इस कारण, उन्होंने कहा कि सब आत्माएँ समान हैं, पर एक नहीं ।
स्वतन्त्रता एवं समानता दोनों की इस प्रकार की परम्परावलम्बित व्याख्या अन्य किसी दर्शन में दुर्लभ है ।
उपनिषदों में जिस 'तत्त्वमसि' सिद्धान्त का उल्लेख हुआ है उसी का जैनदर्शन में नवीन आविष्कार एवं विकास है एवं प्राणि - मात्र की पूर्ण स्वतन्त्रता, समता एवं स्वावलम्बित स्थिति का दिग्दर्शन कराया गया है। संसार में अनन्त प्राणी हैं और उनमें से प्रत्येक में जीवात्मा विद्यमान है । कर्मबन्ध के फलस्वरूप जीवात्माएँ जीवन की नाना दशाओं, नाना योनियों, नाना प्रकार के शरीरों एवं अवस्थाओं में परिलक्षित होती हैं; किन्तु सभी में ज्ञानात्मक विकास के द्वारा उच्चतम विकास की समान शक्तियाँ निहित हैं ।
आचारांग में बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि बन्धन से मुक्त होना तुम्हारे ही हाथ में है-
बन्धप्प मोक्खो तुज्झज्झत्थेव
--आचारांग ५।२।१५०
जब सब प्राणी अपनी मुक्ति चाहते हैं तथा स्वयं के प्रयत्नों से ही उस मार्ग तक पहुँच सकते हैं तथा कोई किसी के मार्ग में बाधक नहीं तब फिर किसी से संघर्ष का प्रश्न ही कहाँ उठता है । शारीरिक एवं मानसिक विषमताओं का कारण कर्मों का भेद है । जीव शरीर से भिन्न एवं चैतन्य का कारण है । जैन दर्शन में जीव की सत्ता शाश्वत, चिरन्तन, स्वयंभूत, अखण्ड, अभेद्य, विज्ञ, कर्त्ता एवं अविनाशी मानी गयी है । सूत्रकृतांग में निर्भ्रान्त रूप में प्रतिपादित किया गया
मुनिश्री विद्यानन्द - विशेषांक
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