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जब मुझे अकर्ताभाव की अनुभूति हुई
(६ जनवरी १९७३ की रात कोटा के 'विश्वधर्म न्यास' ने वीरेन्द्रकुमार जैन के प्रसिद्ध उपन्यास 'मुक्तिदूत' को २५०१ रु. के पुरस्कार से सम्मानित किया था। उस अवसर पर कृतज्ञता-ज्ञापन करते हुए वीरेन्द्र ने अपनी भावाविष्ट वाणी से सात हजार श्रोताओं को एक चमत्कारिक मंत्र-मोहिनी में स्तंभित कर दिया था। देर-अबेर ही सही, वीरेन्द्र भाई की डायरी में लगभग शब्दशः आलेखित उस भाषण को आज यहाँ प्रस्तुत करते सचमुच हमें प्रसन्नता होती है । एक वक्ता और हजारों श्रोताओं की तदाकारिता का एक अमर क्षण इन पंक्तियों में संगोपित है।-सं.)
- वीरेन्द्रकुमार जैन
आपने मुझे याद किया, मैं कृतज्ञ हूँ। तीन जनवरी को अचानक तार-चिट्ठी पाकर लगा कि एकदम ही नीरव, निरीह हो गया हूँ। अपने से अलग अपने को देखा : हाँ, आज से सत्ताईस वर्ष पहले, एक अट्ठाईस बरस के लड़के ने 'मुक्तिदूत' लिखा था। आज इतने वर्ष बाद उस पुस्तक की यह स्वीकृति देखकर प्रतीति हुई कि उसका लेखक मैं नहीं; वह कोई और ही था। एक अद्भुत अकर्ताभाव से मैं अभिभूत हो उठा हूँ।"""कौन होता हूँ मैं, इसको लिखने बाला? आज से ढाई हज़ार वर्ष पहले भगवान महावीर की कैवल्य-ज्योति में ही 'मुक्तिदूत' लिखा जा चका था। मेरी क़लम से केवल उस ज्योति-लेखा का अनावरण हुआ है। हाल ही में कहीं पढ़ा था : तीर्थंकर जन्मना और स्वभाव से ही निरीह होते हैं। वे स्वेच्छा से कुछ नहीं करते : उनके द्वारा अनायास ही नाना प्रवृत्ति-पराक्रम उनके युग-तीर्थ में होते हैं। वे निसर्ग से ही कर्तृत्व के अहंकार से ऊपर होते हैं। सहज आत्मस्वरूप रह कर ही वे महाविष्णु, लोक में युग-तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं।
यह मेरा परम सौभाग्य है कि हमारे युग के लोकनायक तीर्थंकर महावीर के आगामी महानिर्वाणोत्सव के उपलक्ष्य में ही 'मुक्तिदूत' को यह पुरस्कार प्रदान किया
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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