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कभी बहुत शिथिल और इन दोनों के मध्य अध्यापन के सैकड़ों कोटि-क्रम हैं । इन सब पर हमारी दृष्टि कहाँ जा पाती है ?
इस प्रकार वस्तु के अनेक गुण हैं । वह निरन्तर परिवर्तनशील है और उसके अनन्त धर्म हैं । क्या हम वस्तु को उसकी सम्पूर्णता में देख सकते हैं, जान सकते हैं ? संभव ही नहीं है ।
जितना भी हम देख और जान पाते हैं, वर्णन उससे भी कम कर पाते हैं । हमारी भाषा हमारी दृष्टि की तुलना में और भी असमर्थ, अपर्याप्त, अपूर्ण और अयथार्थ है ।* नानाधर्मात्मक वस्तु की विराट सत्ता के समक्ष हमारी दृष्टि को सूचित करने वाली भाषा बहुत बौनी है । वह एक टूटी नाव के सहारे समुद्र के किनारे खड़े होने की स्थिति है; लेकिन हम अपने अहंकार में अपनी इस स्थिति को समझते ही नहीं हैं । महावीर ने वस्तु की विराटता और हमारे सामर्थ्य की सीमा स्पष्ट करके हमारे इसी अहंकार को तोड़ा है । उन्होंने कहाः "वस्तु उतनी ही नहीं है, जितनी तुम्हें अपने दष्टिकोण से दिखायी दे रही है । वह इतनी विराट है कि उसे अनन्त दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है । अनेक विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म उसमें युगपत् विद्यमान हैं । तुम्हें जो दृष्टिकोण विरोधी मालूम पड़ता है उसे निर्मित करने वाला धर्म भी वस्तु में है । तुम ईमानदारी से--थोड़ा विरोधी दृष्टिकोण से--देखो तो सही । तुम्हें वह दिखायी देगा । एकान्त दृष्टि से विपरीत यह अनेकान्त दृष्टि है । यही अनेकान्तवाद है । यह विचार या दर्शन है। एक ओर वस्तु के अनेक गुण, बदलती पर्यायें, और अनन्तर्मिता का और दूसरी ओर मानव-दष्टि की सीमाओं का बोध होते ही यह सहज ही उद्भूत हो उठा। विचार में सहिष्णुता आयी तो भाषा में उसे आना ही था । विचार में जो अनेकान्त है वाणी में वही स्याहाद है।
स्यात् शब्द शायद के अर्थ में नहीं है । स्यात् का अर्थ शायद हो तब तो वस्तु के स्वरूपकथन में सुनिश्चितता नहीं रही। शायद ऐसा है, वैसा है--यह तो बगलें झाँकना हुआ। पालि और प्राकृत में स्यात् शब्द का ध्वनि विकास से प्राप्त रूप 'सिया' वस्तु के सुनिश्चित भेदों के साथ प्रयोग में आया है। किसी वस्तु के धर्म-कथन के समय स्यात शब्द का प्रयोग यह सूचित करता है कि यह धर्म निश्चय ही ऐसा है, लेकिन, अन्य सापेक्षताओं में सुनिश्चित रूप से संबंधित वस्तु के अन्य धर्म भी हैं । इन धर्मों को कहा नहीं जा रहा है, क्योंकि शब्द सभी धर्मों को यगपत संकेतित नहीं कर सकते । यानी स्यात शब्द केवल इस बात का सूचक है कि कहने के बाद भी बहुत कुछ अनकहा रह गया है । इस प्रकार वह संभावना, अनिश्चय भ्रम आदि का द्योतक नहीं, सुनिश्चितता और सत्य का प्रतीक है। वह अनेकान्त-चिन्तन का वाहक है और हमें धोखे से बचाता है । ___ * भाषा पदार्थों को अपूर्ण और यथार्थ रूप में लक्षित करती है। (मिशेल वीएल, सीमेंटिक्स, पृ. १७१)
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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