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महावीर ने अनेकान्त को यदि चिन्तन और वाणी का ही विषय बनाया होता तो हमें उससे विशेष लाभ नहीं था । अनेकान्तवाद और उसका भाषिक प्रतिनिधि स्याद्वाद अनेक वादों में एक वाद और बन जाता। उसकी किताबी महत्ता ही होती; लेकिन महावीर किताबी व्यक्ति थे ही नहीं । दर्शन और ज्ञान तो उनके लिए रास्ता था । इस रास्ते से वे चरित्र तक पहुँचे थे । मुक्ति का मार्ग भी उन्होंने इसी प्रकार निरूपित किया है--'सम्यग दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' । यहाँ चारित्र्य सर्वोच्च स्थान पर है । उस पर विशेष बल है। यह स्वाभाविक ही था कि ऐसा व्यक्ति अनेकान्त-चिन्तन को आचार का विषय भी बनाता । अनेकान्त-चिन्तन ही आचार में अहिंसा के रूप में प्रकट हुआ।
अपने अहंकार के कारण हम अपने-आप को ही विराट समझते हैं । शायद हम अपने आपको अपेक्षाकृत अधिक देख पाते हैं; इसलिए अन्य वस्तुओं की तुलना में जिन्हें हम अधिक नहीं देख पाते अपने-आपको बड़ा मान बैठते हैं । महावीर ने वस्तु की विराटता को उसके अनेक गुण, बदलती पर्यायों और नाना धर्मात्मकता के आधार पर इस प्रकार स्पष्ट किया कि हमें उसके लिए--दूसरों के लिए हाशिया छोड़ना पड़ा । उन्होंने न तो आदेश दिया, न वस्तु के धर्म को अव्याकृत कह कर अव्याख्यायित रहने दिया--उन्होंने वस्तु स्वरूप की विराटता से हमें परिचित कराया। उन्होंने विषय का ऐसा विवेचन किया कि हमने अहिंसा को अपने भीतर से उपलब्ध कर लिया। अहिंसा को यदि अनेकान्त के रूप में उन्होंने वैचारिक आधार न दिया होता तो वे एक दार्शनिक निराशा की सृष्टि करते । बिना वैचारिक आधार के अहिंसा बहुत दिन तक टिक नहीं पाती। उसका भी वही हश्र होता जो बहुत से विचारहीन आचारों का होता है । इसके विपरीत यदि अनेकान्त केवल विचार का ही विषय रहता तो वह पण्डितों के वाद-विवाद तक ही सीमित होकर रह जाता।
यही अनेकान्त समाज-व्यवस्था के क्षेत्र में अपरिग्रह का रूप ग्रहण करता है । इस प्रकार एक निजी आचार तक ही वह सीमित नहीं है । सम्पत्ति का संग्रह हिंसक कार्य तो है ही वह एकान्त और अस्याद्वादी कार्य भी है। जब हम अपने लिए संग्रह करते हैं तो दूसरों की सापेक्षता में कुछ सोचते ही नहीं हैं। अपने आपको महत्त्व-केन्द्र मान लेते हैं । दूसरों के लिए हाशिया न छोड़ने के कारण विस्फोट और क्रान्ति होना स्वाभाविक है। महावीर के समय से आज का समय अधिक जटिल है। आज हम अधिक जटिल और परोक्ष अर्थ तथा राजव्यवस्था के अन्तर्गत रह रहे हैं । हमें पता ही नहीं चलता और हमारी सम्पत्ति तथा सत्ता अन्य हाथों में केन्द्रित हो जाती है। इन हाथों के स्वामी एक स्वयं के द्वारा संचालित जयजयकार से घिर जाते हैं । मालाएँ, अभिनन्दन, चमचे, भाट, अफसर और चपरासी, सट्टा और काला बाजार उन्हें सर्वज्ञ बना देते हैं । यह अपनी औकात को भूलना है । वस्तु के स्वरूप की नासमझी है । यहाँ आम आदमी को केवल एक ही कोण से देखा जा रहा है । और उसे असहाय समझा जा रहा है । यह उसका दोष नहीं; हमारी दृष्टि का दोष है। काश,
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तीर्थकर | अप्रैल १९७४
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